'बिहार विभूति' अनुग्रह बाबू: अतीत, व्यक्तित्व एवं राष्ट्र - निर्माण

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'बिहार विभूति' अनुग्रह बाबू: अतीत, व्यक्तित्व एवं राष्ट्र - निर्माण

  • यद्यपि अनुग्रह बाबू का जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था, लेकिन अपने पिता से मत भिन्नता के चलते पारिवारिक सुख का लाभ नहीं उठा सके
  • जब मोहम्मद अली जिन्ना ने इस अधिवेशन में गांधी को मिस्टर गांधी कह कर संबोधित किया, तो दर्शकों ने जिन्ना पर गांधीजी को महात्मा जी कहने के लिए दबाव डाला, और उन्हें गांधी को...

Anugrah Narayan Singh, Bihar Vibhuti, Hindi Content

लेखक: डॉ. मनोज कुमार (Dr. Manoj Kumar)
Published on 1 Jul 2021 (Update: 1 Jul 2021, 7:43 PM IST)

भारतीय राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई और आधुनिक बिहार के निर्माण में  अनुग्रह नारायण सिंह का योगदान सर्वथा उल्लेखनीय और जगजाहिर है। गांधी, नेहरू, पटेल, राजेंद्र प्रसाद एवं डॉ श्री कृष्ण सिंह जैसे तात्कालिक राष्ट्रीय नेताओं की भांति अनुग्रह बाबू ने आतताई अंग्रेजी औपनिवेशिक दंश और दर्द से हिंदुस्तानियों को न केवल मुक्ति दिलाना अपना लक्ष्य बनाया, बल्कि आजाद भारत के नव निर्माण एवं विकास में भी संयुक्त बिहार के वित्त मंत्री के तौर पर अहम भूमिका अदा की थी ।

एक बड़े जमींदार घराने में पैदा होने के बावजूद अपने परंपरावादी पिता से वैचारिक मतभेद तथा अनबन होने के चलते बालपन से ही अनुग्रह बाबू का जीवन कष्टमय रहा, और अपनी मेधावी प्रतिभा की बदौलत संपूर्ण शैक्षिक काल में मिलने वाली छात्रवृत्ति और ट्यूशन को अपनी शिक्षा और जीवन यापन का सहारा अनुग्रह बाबू को बनाना पड़ा था।

भारतीय आजादी की लड़ाई एवं राष्ट्र निर्माण में अनुग्रह बाबू द्वारा दिए गए योगदान को तात्कालिक समाचार पत्र इंडियन नेशन एवं अमृत बाजार प्रमुखता से प्रकाशित किया करते थे। ये समाचार पत्र आज भी नेशनल लाइब्रेरी की एक शाखा ओल्ड न्यूजपेपर लाइब्रेरी कोलकाता में संरक्षित हैं। अनुग्रह बाबू के इतिहास निर्माण में इन समाचार पत्रों के साथ-साथ बिहार सरकार के अभिलेख तथा सम सामयिक विद्वत जनों के संस्मरण अत्यंत उपयोगी हैं।

अनुग्रह नारायण सिंह का आविर्भाव आधुनिक युग के ऐसे युगांतरकारी दौर में हुआ था, जब संपूर्ण विश्व सभी क्षेत्रों में आंदोलित था, और परिवर्तन के एक नए दौर से गुजर रहा था। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक जगत में, मूलतः यूरोपीय देशों में मुक्त व्यापार और पूंजीवाद का बोलबाला था। उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद में परिणत हो चला था, और आम लोगों का शोषण विभत्स रूप ले चुका था। अंतरराष्ट्रीय जगत में होने वाली हलचलों और परिवर्तनों से भारत पूरी तरह प्रभावित था, तथा उस समय का भारत अंग्रेजी साम्राज्यवाद का शिकार था। 

अनुग्रह नारायण सिंह का जन्म वर्तमान औरंगाबाद जिले के पोईआवा गांव में 18 जून 1887 को हुआ था। अनुग्रह बाबू चौहानवंशी सोमेश्वर सिंह के वंशज और ठाकुर विशेश्वर दयाल के प्रथम पुत्र थे। अनुग्रह बाबू तीन भाई थे। मंझला भाई युगल किशोर नारायण सिंह था, तथा सबसे छोटे भाई महेश प्रसाद सिंह थे, जो बाल्यकाल में ही चल बसे। 

यद्यपि अनुग्रह बाबू का जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था, लेकिन अपने पिता से मत भिन्नता के चलते पारिवारिक सुख का लाभ नहीं उठा सके। अनुग्रह बाबू की आरंभिक शिक्षा गांव के विद्यालय से शुरू हुआ। तीन वर्षों तक उनको पढ़ाई छोड़नी पड़ी। दरअसल उनके पिता विशेश्वर दयाल का मानना था कि अनुग्रह जमींदारी प्रबंधन का कार्य करें, तथा अब और आगे की पढ़ाई न करें। उनके पुत्र सत्येंद्र नारायण सिंह ने लिखा :" हमारे पिता जमींदार थे और खास पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने बाबूजी को नौकरी करने की सलाह दी, जिसे बाबू जी ने अस्वीकार कर आगे की पढ़ाई जारी करने का निर्णय लिया। परिणामत: उन्हें घर से हर प्रकार की मदद बंद कर दी गई। यहीं से उनमें परिवार के प्रति उदासीनता पैदा हो गई।


बाल्यकाल से ही अनुग्रह बाबू द्वारा लिए गए ऐसे क्रांतिकारी निर्णय को उनकी प्रतिभा और कर्मठता ने संबल प्रदान किया। वर्ष 1904 में मिडिल स्कूल की परीक्षा में प्रथम आए, और छात्रवृत्ति पाकर गया जिला स्कूल में दाखिला लिया। अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के ख्याल से उन्होंने ट्यूशन पढ़ाने का कार्य भी किया। जिला स्कूल में उन्हें बैधनाथ सिंह नामक शिक्षक के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनसे गीता के कर्म की प्रधानता और कर्तव्य परायणता की शिक्षा मिली। इन तमाम बातों का अनुग्रह बाबू की जीवन शैली पर गहरा असर पड़ा था। 

वर्ष 1908 में अनुग्रह बाबू गया जिला स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए, और पुनः छात्रवृत्ति का लाभ उठाया। तात्कालिक औरंगाबाद में छात्रवृत्ति हासिल करने वाले वे प्रथम छात्र थे। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पटना कॉलेज पटना में दाखिला लिया, और वर्ष 1912 में इन्होंने अंग्रेजी विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 

यद्यपि अनुग्रह बाबू अपने विद्यालय जीवन से ही सार्वजनिक क्रियाकलापों में हिस्सा लेते रहे थे, और उन्होंने भारत में 'अंग्रेजी राज' जैसे लेख लिखे, जिसके लिए वह पुरस्कृत भी किए गए थे, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनका पदार्पण महाविद्यालय जीवन (1908-1912) में ही हुआ। बिहार छात्र संघ के प्रांतीय मंत्री बने, तथा वर्ष 1910 में गठित चाणक्य सोसाइटी के प्रथम सचिव बनाए गए। इसके अलावा अनुग्रह बाबू पटना कॉलेज के डिबेटिंग सोसायटी के भी सचिव थे, तथा खिलाड़ी नहीं होने के बावजूद  इतने लोकप्रिय थे कि कॉलेज के कप्तान निर्वाचित हुए। इसी समय पोलक बाबू के भाषण ने उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की और देश की राजनीति में उनकी दिलचस्पी गहरी हुई।

वर्ष 1910 में कांग्रेस का अखिल भारतीय स्तर के अधिवेशन का आयोजन इलाहाबाद में हुआ था, और पहली मर्तबा अनुग्रह बाबू राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुए थे। जब 1912 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन पटना के बांकीपुर में आयोजित हुआ, तो अनुग्रह ने एक स्वयंसेवक के रूप में अपनी हिस्सेदारी निभाई।

1912 में पटना कॉलेज से स्नातक डिस्टिंक्शन अंक के साथ पास किया, और एम ए. करने के लिए कोलकाता चले गए और एम ए. की पढ़ाई इतिहास विषय में की। 1914 में एम ए. पास करने के बाद कानून की पढ़ाई के लिए कोलकाता विश्वविद्यालय के ही लॉ कॉलेज में दाखिल हुए। राजेंद्र बाबू लॉ कॉलेज में प्रोफेसर थे, और यहीं पर राजेंद्र बाबू और अनुग्रह बाबू में गुरु शिष्य का रिश्ता कायम हुआ। अनुग्रह बाबू के शब्दों में :" यद्यपि राजेंद्र बाबू से परिचय छात्र सम्मेलन से ही था, लेकिन कोलकाता में रहने से घनिष्ठता और भी बढ़ी। मैंने उन्हें अपना नेता मान लिया।"

वर्ष 1915 में अनुग्रह बाबू भागलपुर के तेज नारायण जुबली कॉलेज में इतिहास के व्याख्याता नियुक्त हुए। व्याख्याता के पद पर उन्होंने मात्र 16 माह तक काम किया। 1915 में उनकी माता चल बसीं और इस घटना ने अनुग्रह बाबू को अत्यंत व्यथीत किया। उन्हीं के शब्दों में :" माता का  असर जितना मेरे जीवन पर पड़ा था, उतना किसी और का नहीं। मैं अपना सारा दुख माता को सुना कर संतुष्ट हो जाता था। 
मेरी हार्दिक इच्छा थी कि छात्र जीवन से विमुक्त होकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊंगा, तब माता की सेवा में अपने को अर्पित कर दूं। उनका जीवन बराबर दुख में रहा, और जब मैं इस योग्य हुआ कि उनकी सेवा कर सकता, तब वह हमें छोड़ कर चली गयीं।"

वर्ष 1916 में कश्मीर के महाराणा प्रताप सिंह की अध्यक्षता में पटना में क्षत्रिय महासभा का अधिवेशन हुआ था, और इसमें अनुग्रह बाबू ने गर्मजोशी के साथ अपनी सहभागिता निभाई थी। इस सभा ने जाति विशेष में उनको लोकप्रिय बनाने में सहायता की थी। संयोग वश इसी समय डुमरांव के महाराज को बर्मा में स्थित अपनी संपत्ति के लिए अपने ही दीवान के पुत्र हरिजी से मुकदमा लड़ना था। दरअसल हरिजी कायस्थ जाति के थे, और उनका वकील अनुग्रह बाबू के गुरु राजेंद्र प्रसाद थे। इस परिस्थिति में डुमरांव महाराज को राजपूत जाति के वकील पर अधिक भरोसा था, और इस कारण अनुग्रह बाबू को बर्मा जाना पड़ा।

अनुग्रह बाबू का राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से सर्वप्रथम जुड़ाव वर्ष 1916 के होमरूल लीग आंदोलन के साथ हुआ। वर्ष 1917 के चंपारण सत्याग्रह में अनुग्रह बाबू खुलकर भागीदारी निभाना चाहते थे, किंतु व्याख्याता का पद प्रमुख बाधा बनी हुई थी। यही कारण था की महाविद्यालय की नौकरी को छोड़ कर पटना उच्च न्यायालय में वकालत शुरू किया। जब नीले अंग्रेजों के अत्याचार से चंपारण के किसानों को निजात दिलाने हेतु महात्मा गांधी मोतिहारी पहुंचे, तो अन्य गणमान्य लोगों की टोली में अनुग्रह बाबू भी शामिल थे। मोतिहारी और बेतिया के गांव में घूम - घूम कर शोषित किसानों से उनके बयान भोजपुरी में लेते थे, और अंग्रेजी में अनुवादित कर उसे टंकीत करा कर गांधीजी के सामने प्रस्तुत करते थे। इस कार्य में अनुग्रह बाबू का सहयोग अत्यंत सराहनीय था। यह बात अंग्रेजी सरकारी रिपोर्ट पर आधारित है। 
चंपारण सत्याग्रह में अनुग्रह बाबू के कार्यों से गांधीजी अत्यधिक प्रभावित हुए थे, और अनुग्रह बाबू गांधी के करीब हो चले थे।


उच्च शिक्षा हासिल करने के बावजूद चंपारण सत्याग्रह में प्रवेश के समय तक अनुग्रह बाबू कई मामले में परंपरावादी बने रहे थे। छुआछूत को मानने तथा नौकर रखने की प्रवृत्ति बनी हुई थी। अनुग्रह बाबू के शब्दों में :" जब मोतिहारी में गोरख बाबू के घर पर काफी लोगों का जमावड़ा हो गया, तो उनके मकान के बगल में एक मकान किराए पर लिया गया, जिसमें गांधी जी के कार्यकर्ता रहते थे। कार्यकर्ता में कई जातियों के लोग शामिल थे, और छुआछूत का विचार भी हम लोगों के दिलों दिमाग में अभी शेष था। 

नए मकान में हम लोग अलग-अलग चौकी में भोजन पकाने लगे। जब तक गोरख बाबू के साथ थे, तब तक ब्राह्मण रसोइए के चलते जात पात का कोई सवाल ही नहीं उठा। अलग होते ही यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ। पहला दिन हम लोगों का अधिकांश समय रसोई बनाने में ही व्यतीत हो गया, और इस बात की जानकारी जब गांधी को मिली, तो वे अत्यंत व्यथित हुए। उनके मार्मिक भाषण का इतना गहरा असर हम लोगों पर पड़ा कि दूसरे ही दिन से अलग-अलग रसोई पकाना बंद हो गया तथा हम सभी ने नौकर का त्याग किया और अपना कार्य स्वयं करने लगे।" 

स्पष्ट है कि गांधीजी के प्रभाव स्वरूप अनुग्रह बाबू ने न केवल छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथा का परित्याग किया और अपना कार्य स्वयं करने की आदत डाली, बल्कि गांधी के विचारों को व्यवहारिक रूप प्रदान किए जाने को अपने जीवन का लक्ष्य भी बनाया।

उन्होंने गांधी जी का विश्वास जीतने में सफलता हासिल की, और गांधी उन पर सर्वाधिक भरोसा करने लगे थे। जब गांधी एडवर्ड गेट से मिलने रांची जाने लगे तो बेतिया कार्यालय की संपूर्ण जिम्मेवारी अनुग्रह बाबू को ही सौंपा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि 24 घंटे के अंदर कोई तार न मिले, तो यह समझा जाना चाहिए कि वो गिरफ्तार हो गए और तैयार सूची के अनुसार जेल जाने का कार्यक्रम आरंभ हो जाना चाहिए। अनुग्रह सिंह के शब्दों में :" जेल जाने से लोग बहुत ही डरते थे, और सारा चंपारण इसी भय के चलते नील कोठी वाले के अत्याचारों को सहन करते रहे थे। मैं भी अलग नहीं था, लेकिन गांधीजी ने इस भय से हम लोगों को सदा के लिए मुक्त कर दिया।" चंपारण सत्याग्रह में चाहे किसानों की दुर्दशा की सूचना एकत्रित करने का सवाल हो, या उनके दयनीय हालत में रचनात्मक कार्यों के द्वारा सुधार करने का प्रश्न - इन सभी में अनुग्रह बाबू गांधी के निर्देशों का पालन करते रहे थे, और यही कारण था कि वह गांधी के सबसे प्रिय शिष्यों में एक बन बैठे।

1920 में गांधी द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर छेड़ा गया पहला सक्रिय जनआंदोलन असहयोग आंदोलन था, और पहली मर्तबा इस आंदोलन में सक्रिय प्रतिरोध की राजनीति का प्रयोग किया गया था। जिसका अर्थ अंग्रेजी सरकार से सभी क्षेत्रों में असहयोग करना था। गांधी के मुरीद होने के बावजूद अनुग्रह बाबू शुरुआती दौर में चितरंजन दास के खेमे में शामिल थे, और वह नहीं चाहते थे कि कांग्रेस असहयोग की रणनीति अपनाए, लेकिन परिस्थितियां बदली और आगे चलकर बाबू अनुग्रह सिंह ने गांधी की रणनीति को अपना लिया। सक्रिय असहयोग की नीति पर कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन 1920 में अंतिम रूप से निर्णय लिया जाने वाला था। इस संबंध में अनुग्रह बाबू के विचार :" चितरंजन दास महात्मा गांधी के सक्रिय राजनीति से सहमत नहीं थे, और उनके विरोधी खेमे के सर्वप्रमुख नेता थे। न जाने कितनी स्पेशल ट्रेन कोलकाता से दास के प्रतिनिधियों को नागपुर पहुंचा रही थी, लेकिन काफी पैसा खर्च करने के बावजूद चितरंजन दास द्वारा लाए हुए प्रतिनिधि गांधी के पक्ष में हो गए।

जब मोहम्मद अली जिन्ना ने इस अधिवेशन में गांधी को मिस्टर गांधी कह कर संबोधित किया, तो दर्शकों ने जिन्ना पर गांधी को महात्मा जी कहने के लिए दबाव डाला, और उन्हें गांधी को महात्माजी कहना पड़ा। लेकिन यही जिन्ना जब  मौलाना मोहम्मद अली को मि. कहा तब दर्शकों के जोर लगाने के बाद भी अली को मौलाना कहने से इंकार कर दिया।" 
इसी प्रकार 1922 के गया कांग्रेस अधिवेशन में काउंसिल में प्रवेश को लेकर हुए मतदान में अनुग्रह बाबू ने दास से नजदीकी संबंध होने के बावजूद गांधी का ही साथ दिया था।

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1923 में नए म्यूनिसिपल एक्ट के तहत बिहार में नगर पालिका का चुनाव हुआ, जिसमें 10 प्रत्याशी निर्वाचित हुए। राजेंद्र प्रसाद पटना नगर पालिका के चेयरमैन और अनुग्रह बाबू वाइस चेयरमैन बने। तत्काल बाद अनुग्रह बाबू गया जिला बोर्ड के चेयरमैन निर्वाचित किए गए। वर्ष 1925 में काउंसिल ऑफ स्टेट का चुनाव होने वाला था। बिहार में चार पद थे- एक मुसलमान और तीन हिंदू। श्री कृष्ण सिंह, राजेंद्र बाबू के अग्रज भाई महेंद्र प्रसाद और अनुग्रह बाबू हिंदू सीटों के लिए तथा शाह मोहम्मद जुबेर मुस्लिम सीट के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार बने। अनुग्रह बाबू के विरोध में डुमरांव के महाराज चुनाव में खड़े थे, जबकि श्री बाबू के विपक्ष में दरभंगा महाराज। 

इस चुनाव में अनुग्रह बाबू सफल हुए, लेकिन श्री कृष्ण सिंह चुनाव हार गए। अनुग्रह बाबू के शब्दों में:"  दरभंगा महाराज, महेंद्र बाबू और मेरा नाम निर्वाचित सदस्यों में प्रकाशित हुआ। इसके साथ एक दुर्भाग्य भी था कि श्री बाबू चुनाव हार गए थे। इस बात का दुख प्रत्येक कांग्रेसी को हुआ, और श्री बाबू के भावुक हृदय पर इस घटना से आघात लगना स्वाभाविक ही था। हमारे और श्री बाबू के विरोधी इस बात को लेकर दोनों के बीच पटना विश्वविद्यालय से ही स्थापित मधुर संबंधों में दरार उत्पन्न करना चाहा, और तरह-तरह की कहानियां गढ़ कर मेरे विरोध में श्री बाबू के विमल हृदय को मैला करने का प्रयास किया गया। श्री बाबू ने एक दिन मुझसे इस संबंध में चर्चा भी की थी, लेकिन आगे उन्होंने कभी नहीं किया, और इस प्रकार हम दोनों के मधुर संबंध बने रहे। 

वर्ष 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन की तैयारी करने एवं उसमें सहभागी बनने के मद्देनजर अनुग्रह बाबू ने कौंसिल ऑफ स्टेट की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। जून 1931 में वह बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए, और बिहार में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रांतीय संचालक बनाए गए। इसी समय से अनुग्रह बाबू के ऊपर बिहार के संपूर्ण वित्तीय व्यवस्था एवं पैसे की उगाही तथा उचित प्रबंधन की जिम्मेवारी कांग्रेस की ओर से डाला गया था, जो निरंतर 1957 तक बना रहा।

26 जनवरी 1933 को पटना में स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर प्रतिज्ञा पत्र को पढ़ने के तत्काल बाद अनुग्रह बाबू को गिरफ्तार कर 15 महीने की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई, और उन्हें हजारीबाग जेल भेजा गया। अनुग्रह बाबू की यह पहली जेल यात्रा थी। रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में :"अनुग्रह बाबू को 15 महीने की सजा दी गई और दो -चार दिनों तक पटना जेल में रखे जाने के बाद उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया। हजारीबाग जेल में अनुग्रह बाबू का अनुराग समाजवादी साहित्य के अध्ययन की ओर बढ़ने लगा था, और एक नई विचारधारा के अध्ययन का अवसर उन्हें हजारीबाग जेल में प्राप्त हुआ।"

15 जनवरी 1934 को बिहार में भयानक भूकंप आया, जिसका जोर उत्तर बिहार में ज्यादा था। इसमें 20,000 से अधिक लोग मारे गए, और 30,000 वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में विध्वंस लीला का तांडव हुआ। ऐसे समय में लाखों पीड़ित लोगों को राहत पहुंचाने की बहुत बड़ी चुनौती थी, और इसकी जिम्मेवारी कांग्रेस ने अनुग्रह बाबू को ही सौंपा था। 1934 के इस भूकंप के प्रांतीय राहत कोष के वे संचालक तथा राजेंद्र बाबू की अनुपस्थिति के चलते संपूर्ण व्यवस्था के नियंत्रक बने। नवंबर 1934 में श्री कृष्ण सिंह के साथ अनुग्रह बाबू केंद्रीय विधानसभा के सदस्य बने। 
         
भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था लागू की गई थी, और इसके अंतर्गत बिहार प्रांतीय चुनाव 22 से 27 जनवरी 1937 को संपन्न हुआ, जिसमें कुल 152 में 98 सीटें हासिल कर कांग्रेस पार्टी विजयी हुई। उल्लेखनीय है कि इस चुनाव में चुनावी खर्च के संपूर्ण प्रबंधन का जिम्मा अनुग्रह बाबू के हाथों में था, और चुनाव खर्च के लिए चंदे का पैसा जब कम पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी जमानत पर कर्ज भी लिया था। 
श्री बाबू प्रधानमंत्री बने, तथा अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री और स्थानीय प्रभार मंत्री बनाए गए। वर्ष 1937 से 1957 तक अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री और श्री कृष्ण सिंह मंत्री मंडल के प्रधान बनाए जाते रहे।

1930 से 1957 तक संयुक्त बिहार के वित्तीय प्रबंधन के सर्वोच्च सोपान पर एक सर्वमान्य नेता के रूप में निरंतर प्रतिष्ठित रहना अनुग्रह बाबू के द्वारा राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई में किए गए योगदान और उनकी ओर से सदैव देश तथा लोकहित में लिए गए क्रांतिकारी निर्णय के प्रति स्वाभाविक जनसहानुभूति का परिणाम था। अपना संपूर्ण जीवन और सर्वस्व राष्ट्र को समर्पित करने वाले प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी अनुग्रह नारायण सिंह का बिहार के साथ राष्ट्र निर्माण में उल्लेखनीय योगदान है।

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अक्टूबर 1940 में ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने के ख्याल से कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का निर्णय लिया और बिहार में प्रथम सत्याग्रही श्री कृष्ण बाबू तथा दूसरे सत्याग्रही बनने का सौभाग्य अनुग्रह बाबू ने प्राप्त किया। शुरू करने के तत्काल पूर्व 3 दिसंबर 1940 को अनुग्रह बाबू गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिए गए और 26 अगस्त 1941 को  श्री बाबू के साथ अनुग्रह बाबू की भी रिहाई हुई। 8 दिसंबर 1941 में पटना में आयोजित अखिल भारतीय छात्र संघ के सातवीं अधिवेशन का उद्घाटन अनुग्रह बाबू ने किया, और कांग्रेस के अंदर सेवा दल नामक संगठन का निर्माण किया। 

बिहार में अगस्त क्रांति 1942 की पृष्ठभूमि तैयार करने तथा उसमें सहभागिता निभाने के क्षेत्र में उन्होंने सर्वथा उल्लेखनीय योगदान दिया। 10 अगस्त 1942 को श्री बाबू के साथ अनुग्रह बाबू भी गिरफ्तार किए गए, और लगभग 2 वर्षों के बाद जून 1944 में रिहा हुए। वर्ष 1946 में हुए चुनाव में कांग्रेस पुनः विजई हुई। डॉ. श्री कृष्ण सिंह प्रधानमंत्री बने और अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री बनाए गए। उल्लेखनीय है कि इसी तरह 1952 और 1957 के चुनाव में भी कांग्रेस को बहुमत मिली और श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री तथा अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री के साथ-साथ कृषि आदि कई विभागों का संचालक बनते रहे। 

आजाद बिहार में बिहार विधानसभा का दूसरा आम चुनाव 1957 में संपन्न हुआ, और पहले की भांति कांग्रेस पुनः विजयी हुई। नेता पद के चुनाव को लेकर श्री कृष्ण सिंह के साथ पहली मर्तबा अनुग्रह बाबू ने अपनी दावेदारी पेश की। अब पहले की तरह निर्विरोध कांग्रेस दल का नेता चुना जाना संभव नहीं रहा। कारण नेता पद के लिए दो दावेदार थे, और इसके लिए मतदान किया जाना आवश्यक हो चला था। अनुग्रह बाबू के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिंह के विचार :" बाबूजी नेता पद का उम्मीदवार बनना नहीं चाहते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू और जगजीवन बाबू आदि के जोर देने पर बाबूजी नेता पद के लिए चुनाव लड़ने को तैयार हो गए, लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी कि वह किसी से वोट देने के लिए नहीं कहेंगे। " 

इसी प्रकार कांग्रेस के समकालीन नेता सरदार हरिहर प्रसाद सिंह के विचार:" 1957 में नेता पद के चुनाव में वास्तव में बाबू साहब नेता पद का उम्मीदवार नहीं होना चाहते थे। वह चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थे, लेकिन सत्येंद्र बाबू ने उन्हें चुनाव लड़ने के लिए दबाव डाला। यह चुनाव लड़ना एक मजबूरी हो गई, नहीं तो इसको घटित होना नहीं था।"

पहले की तरह नेता पद का चुनाव निर्विरोध किए जाने को लेकर प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं द्वारा प्रयास किया गया था, लेकिन संभव नहीं हो सका। अंततोगत्वा प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय सदाकत आश्रम पटना में 7 अप्रैल 1957 को 257 विधायकों ने नेता पद के लिए खड़े दोनों उम्मीदवारों के संबंध में अपने मत डाले। 9 अप्रैल 1957 को दिल्ली के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के कार्यालय में श्री कृष्ण सिंह को कुल 145 मत और अनुग्रह बाबू को कुल 109 मत प्राप्त होने की घोषणा की गई, और 3 मतों को अवैध घोषित किया गया। इस प्रकार श्री कृष्ण नेता पद के चुनाव में विजयी होकर पुनः कांग्रेस विधायक दल के नेता बने। सत्येंद्र बाबू की टिप्पणी से यह पता चलता है कि यह चुनाव जातीय आधार पर नहीं लड़ा गया था, क्योंकि अनुग्रह बाबू की जाति के 15 विधायकों ने श्री बाबू को अपना मत दिया था।

चुनाव परिणाम घोषित होने के तत्काल बाद श्री बाबू अनुग्रह बाबू के घर पर गए। सत्येंद्र नारायण सिंह के शब्दों में :" श्री बाबू मेरे बाबू जी से मिलने के लिए मेरे घर आए, और उन्होंने प्यार से मेरा कान पकड़ा। इंसानियत के रिश्ते में कोई कमी नहीं आ पाई थी। " पहले की तरह ही चुनाव के बाद भी मंत्रिमंडल के गठन के दौरान अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री बने और उनके द्वारा मंत्रिमंडल के सदस्यों की तैयार की गई सूची में शामिल व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में लेने से श्री बाबू ने कोई परहेज नहीं किया।

कालवेल के तार में चप्पल फस जाने के कारण गिर पड़े और उनके किडनी में चोट पहुंची और इसी चोट से 5 जुलाई 1957 की रात्रि में उनका निधन हो गया।

1937 से बिहार सरकार में मुख्यमंत्री के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाले अनुग्रह बाबू की उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है। जिस समय अनुग्रह बाबू ने पद संभाला, बिहार के समक्ष कई चुनौतियां मुंह बाए खड़ी थीं। जहां गरीबी ,बेकारी ,भूखमरी, अशिक्षा, आधारभूत संरचनाओं का अभाव, तकनीकी और प्रशिक्षण संस्थाओं की कमी, जमींदार - कृषक संघर्ष, वामपंथी आंदोलनों का जोर, जातिवाद, संप्रदायवाद- आदि जैसी समस्याएं वीभत्स रूप में मौजूद थीं, वहीं दूसरी और बिहार से होने वाले सीमित आय, अपने ही दल की गुटबाजी और आपसी मतभेद के साथ आए दिन होने वाले प्राकृतिक आपदाओं का जुड़ाव तथा उनके कष्टकारी परिणाम आदि विहार निर्माण और विकास में बाधक बनते रहे थे। 
इन तमाम बाधाओं के बावजूद श्री बाबू के अनन्य सहयोगी बनकर बिहार को आधुनिकता की देहरी पर ला खड़ा करना अनुग्रह बाबू का अभूतपूर्व और मौलिक देन है। 

एक वित्त मंत्री के रूप में अनुग्रह बाबू की पहली प्राथमिकता तंगहाल बिहार के नवनिर्माण के लिए पैसे का जुगाड़ करना और उसका सही प्रबंधन किया जाना था। प्राथमिक शिक्षा, नारी शिक्षा, हरिजनों की शिक्षा, हरिजन उत्थान,  तकनीकी शिक्षा, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान आदि के दिशा में महत्वपूर्ण पहल किए गए। तार - संचार, बिजली, सिंचाई आदि के साधनों को उन्नत किया गया, और दामोदर घाटी जैसे विशाल और महत्वाकांक्षी परियोजना को मूर्त रूप प्रदान किया गया। अनुगह बाबू के बजट की खासियत यह थी कि वे सदैव यथार्थवादी बजट पर ध्यान देते थे और घाटे का बजट बनाने से परहेज करते थे। परिणामस्वरूप उनके द्वारा बजट में किए गए सारे वायदे पूरा हुआ करते थे। एक सफल और कुशल वित्त मंत्री की यही सबसे बड़ी विशेषता होती है जो उनमें निहित थी।

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अनुग्रह बाबू बिहार के औद्योगिक विकास के जनक थे। 1947 से 1957 ई. तक संयुक्त बिहार में जितने औद्योगिक केंद्र खुले या प्रस्तावित थे। वह आगामी वित मंत्रियों के लिए चुनौती बनी। औद्योगिक केंद्रों की आधारभूत संरचना के लिए कच्चे संसाधन तथा बिजली आदि का समुचित प्रबंध किया। बाद के वर्षों में व्यवस्था की कमी की वजह से तत्कालीन औद्योगिक केंद्र बंद होने लगे, और बिहारियों को रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों की ओर रुख करना पड़ा - यह सर्वविदित है।

अनुग्रह बाबू सार्वजनिक संपत्ति को जनता की धरोहर मानते थे, और उसका एक पैसा भी निजी उपयोग में लाया जाना उन्हें कतई पसंद नहीं था। उनका व्यक्तिगत संपति संचयन में कोई आस्था नहीं थी, और एक स्वतंत्रता सेनानी तथा आगे चलकर वित्त मंत्री के रूप में एक सजग प्रहरी बने रहे।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1930 में ही अनुग्रह बाबू को प्रांतीय कांग्रेस और आंदोलन का संचालक तथा सार्वजनिक कोष का संरक्षक बनाया गया था। इसके बाद चाहे 1934 के भूकंप का राहत कार्य और निर्माण के खजाना की बात हो, या 1937 से 1957 के काल में संपूर्ण संयुक्त बिहार के सार्वजनिक कोष के संचालन का मामला - पूरी तरह अनुग्रह बाबू के ही हाथों में निहित रहा। अनुग्रह बाबू पर सर्वप्रथम गांधी ने भरोसा किया और गांधी के विश्वास तथा उनके स्वयं की कुशल वित्तीय प्रबंधन दक्षता तथा जन सेवा में तत्परता ने आम लोगों का विश्वास जीता।

आजादी की लड़ाई के दिनों से ही अनुग्रह बाबू के कंधे पर बिहार के संपूर्ण वित्तीय व्यवस्था का भार डाल दिया गया था। चाहे आंदोलन को चलाने के लिए कोष इकट्ठा करने का मामला हो, या संचित संपत्ति के खर्च किए जाने का सवाल- इन सभी क्षेत्रों में वे पूरी तरह सफल और बेदाग रहे। इनके ऊपर गांधी के साथ नेहरू, राजेंद्र प्रसाद और  श्री कृष्ण सिंह का पूर्ण विश्वास बना रहा, और जनसाधारण के बीच में कभी अविश्वास पैदा नहीं हुआ। सारे नेता अनुग्रह बाबू पर वित्तीय प्रबंधन का भार डाल कर पूरी तरह निश्चिंत हो जाते थे, लेकिन अनुग्रह बाबू को तत्कालीन परिस्थितियों में सीमित संसाधनों के चलते कभी कभार सर्वहित में अपमान का घूंट भी पीना पड़ता था। 


इन तमाम परेशानियों के बावजूद धुन के पक्के अनुग्रह बाबू किसी न किसी तरह आंदोलन और कांग्रेस के खर्चे तथा अन्य राहत कार्यों में होने वाले खर्च का जुगाड़ कर ही लेते थे। उदाहरणार्थ- जब 1937 का चुनाव होने वाला था तो उसके खर्च के लिए चंदा इकट्ठा करने के क्रम में अनुग्रह बाबू डालमिया के पास पहुंचे। डालमिया ने 30,000 की भारी रकम तो दिया, लेकिन इसके लिए अनुग्रह बाबू को दिन भर डालमिया जी की चिरौरी करनी पड़ी, और उनके सवालों का सामना करना पड़ा। चंदे के बावजूद चुनावी खर्च पूरा नहीं हो रहा था, तो अनुग्रह बाबू ने अपनी जमानत पर भी कर्ज लिया था।

सार्वजनिक कोष के जनप्रहरी के रूप में अनुग्रह बाबू को इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। बिहार विधान परिषद के तात्कालिक सदस्य ठाकुर मुनेश्वर नाथ सिंह के शब्दों में :"  एक दिन मैं उनके साथ प्रातः 8 बजे उस रूम में बैठा था, जहां वह सोते थे। हम दोनों चाय पी रहे थे। उसी वक्त पलामू जिले के एक ब्राह्मण परिवार का एक कार्यकर्ता जो अनुग्रह बाबू के साथ काम करते थे, एकाएक आ पहुंचे। उनके आते ही अनुग्रह बाबू ने कहा कि तुम इतने दिनों से कहां थे। 
समाचार ठीक है न!

कार्यकर्ता ने कहा कि मैं एक विशेष काम से आया हूं। कहो! कहो! बाबू साहब ने उत्सुकता से कहा। आगंतुक ने कहा कि हमारी बेटी की शादी है। बारात आने में 4 दिन शेष है। पैसा मेरे पास एकदम नहीं है। कम से कम 1500/- रुपए की मदद मुझे करो, ताकि शादी पार लगे। बाबू साहब ने कहा कि अभी तो मेरे पास पैसे नहीं है। पहले क्यों नहीं कहा? बाबू साहब चुप ही थे कि कार्यकर्ता उन पर बरस पड़ा, और बिगड़ कर बोला कि फाइनेंस मिनिस्टर हो और कहते हो कि पैसा नहीं है। 
तुम मदद करना नहीं चाहते!

हम चले - यह कह कर वे चलते बने।

अनुग्रह बाबू ने तुरंत उन्हें बुलवाया और कहा कि बिगड़ो मत। मैं जनता के खजाने की केवल कूंजी रखता हूं। धरोहर तो जनता की है, फिर भी मैं इंतजाम करता हूं। उन्होंने तत्काल ₹1000 अपने पीए से इंतजाम करवा कर दिए और कहा कि ₹500 मैं स्वयं लेकर विवाह के दिन उपस्थित रहूंगा। कार्यकर्ता भाव विभोर हो गए और बड़ा पश्चाताप करने लगे। 

सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा की नियत और चेतना अनुग्रह बाबू के मौत का कारण बना। चौकीदार द्वारा कालवेल की तार को दरी के अंदर किए जाने की अनुमति मांगे जाने के बावजूद अनुग्रह बाबू ने इजाजत नहीं दी थी, क्योंकि उनका मानना था कि दरी सार्वजनिक संपत्ति है, और तार को अंदर करने से दरी में छेद हो जाएगा। उसी तार में चप्पल फँसने से वह गिर पड़े थे, और भयानक चोट के कारण रात्रि में ही चल बसे। अनुग्रह बाबू ने जन सेवा के लिए जन्म लिया था, और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा का ख्याल रखते हुए चल बसे।

जैसा अनुग्रह बाबू ने लिखा है, उससे जाहिर होता है कि संभवत: उनके विरोधियों ने उनके और श्री कृष्ण सिंह के बीच मतभेद पैदा करने का प्रयास किया था, लेकिन दोनों की प्रबुद्धता और देश-काल की वास्तविक समझ ने विरोधियों की चाल को मात दे दिया। श्री बाबू अपनी शंका को अनुग्रह बाबू के समक्ष रखकर यथास्थिति से अवगत हुए और दोनों के बीच यह सिलसिला जीवन पर्यंत निरंतर चलता रहा। उल्लेखनीय है कि श्री बाबू और अनुग्रह बाबू जब किसी अंतर्द्वंद में उलझते थे, या कोई जटिल समस्याएं उनके सामने आती थीं, तो दोनों मिल बैठकर समस्याओं का बखूबी हल ढूंढ निकालते थे।

इसमें दो राय नहीं कि यदि काउंसिल ऑफ स्टेट के चुनाव में श्री बाबू की पराजय और उनको तबाह करने पर तुले विरोधियों की शरारती चालों ने कुछ दिनों तक इन दोनों के बीच पहली मर्तबा दरार पैदा किया, लेकिन यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि जब तक दोनों जिंदा रहे, आपसी संबंधों में उतार चढ़ाव होने के बावजूद एक सिक्के के दो पहलू बने रहे। इस घटना के उपरांत अपने विरोधी और वास्तविक हितैषी की पहचान श्री बाबू और अनुग्रह बाबू ने कर लिया था, और यही कारण था कि आगामी वर्षों में मुख्यतः 1937 से 1957 तक के चुनाव एवं सरकारी मशीनरी के संचालन के कार्य में दोनों नेता पद को लेकर एक दूसरे के विरोधी होने के बावजूद अन्य सहयोगी बने रहे। 

कुछ बुद्धिजीवियों के साथ-साथ एक वर्ग ने श्री बाबू और अनुग्रह बाबू के बीच विभिन्न समय अंतराल में उत्पन्न मतभेद को जातीय रंग एवं पद लिप्सा का रूप देकर इनके विरोधियों को मजबूती प्रदान करने की कोशिश की, और प्रयासरत रहे, लेकिन सच तो यह है कि श्री बाबू और अनुग्रह बाबू दोनों अपने विरोधियों की बातें ध्यानपूर्वक सुनते थे, और उनके द्वारा अपने पक्ष में सूचना दिए जाने या होने की काफी सराहना भी करते थे, लेकिन दूसरी ओर विरोधियों के चले जाने के बाद दोनों बंद कमरे में एक दूसरे के विरोध में कहीं गए बातों को बतला कर उनकी नादानी पर काफी हंसते और अपने दिल को बहलाते थे।


यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें एक बिहार का गांधी था, तो दूसरा नेहरू। एक केसरी था तो दूसरा विभूति। दोनों को इस बात का बखूबी एहसास था कि एक दूसरे के बगैर वह दोनों अधूरे हैं। उनको यह भी पूरी तरह पता था कि अलगाव की स्थिति में बिहार की आजादी और निर्माण के कार्य के साथ-साथ हम दोनों की बर्बादी भी सुनिश्चित है। आखिर दोनों कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं, बल्कि उच्च शिक्षित, विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान लाने वाले तथा आजादी की लड़ाई के तपे-तपाए साधक और कर्मठ राजनेता थे।

यह सही है कि जब तक अनुग्रह बाबू और श्री बाबू जीवित रहे, बिहार की राजनीति एवं स्वयं को चापलूस और गलत लोगों से सुरक्षित रखा, लेकिन उनके चले जाने के बाद बिहार की राजनीति दूषित होने लगी, और जातीय प्रभाव बढ़ने लगा। परिणामस्वरूप बने बनाए सामाजिक ताने-बाने टूटने लगे, और कोयल का स्थान कौवा धारण करने लगे। आज स्थिति यहां तक बदतर हो चली है कि हँस हँस के खिल्ली उड़ाई जाती है, और बगुला भक्तों की एक जमात लोक नियति का नियंता बन बैठा है।
 
सच तो यह है कि अनुग्रह बाबू और श्री बाबू के आपसी मतभेदों को बढ़ावा देने वाले लोगों की चालें इन दोनों की मृत्यु के उपरांत इनके वंशजों या अनुयायियों पर असर डालने लगा था, और विगत 50 वर्षों में पूरी तरह अपना प्रभाव जमा बैठा। आज घड़ी की सुइयां विपरीत दिशा में घूम चुकी हैं। शायद ही इनके आदर्श और पथ का अनुगामी सत्ता के सोपान पर हो, और जो कुछ लोग उत्तरदायित्व के महत्वपूर्ण पदों पर हैं भी, उनकी हैसियत सत्ता और जाति विशेष के दलालों से अधिक नहीं है। आज वो दाता से याचक की स्थिति में आ पहुंचे हैं, और नैतिकता का लोप हो चला है। वे मिथ्या आत्म प्रशंसा पर मंत्र मुग्ध हैं, और राजनीति के गलियारे में इनका चिरौरी करना मुख्य पेशा बन चुका है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन यह भी सच है कि बदलाव की गति अत्यंत धीमी होती है। मात्र 30 वर्षों में ही पूरी तरह परिवर्तन हो जाना मूल कारणों को ढूंढने पर बाध्य कर देता है। अनुग्रह बाबू 1957 और सीरी बाबू 1961 तथा इन दोनों के मार्गदर्शक डॉ राजेंद्र प्रसाद की 1963 में मृत्यु के उपरांत सत्ता की लिप्सा बढ़ी और बिहार की राजनीति पर अनैतिक लोगों का जमावड़ा होने लगा। 


वर्ष 1937 से 61 के बीच बिहार को आधुनिकता की दहलीज पर ला खड़ा करने जैसे इनके उदात्त कार्यों को भी जातीयता और क्षेत्रीयता का मुलम्मा चढ़ाकर दूषित किया जाने लगा। इन विरोधी राजनेताओं के काम यही तक सीमित नहीं रहे,  बल्कि एक सुनियोजित रणनीति के तहत खास वर्ग के लोगों की चेतना को ठीक उसी तरह भड़काया जाना शुरू किया गया। जैसे कोई मौलाना दूसरे धर्म के प्रति विद्वेष फैलाकर आतंकवादी और एक दलित नेता होने का हामी भरकर माओवादियों के दल का निर्माण करता है। वहीं दूसरी तरफ श्री बाबू और अनुग्रह बाबू के बीच के संबंध के बारे में दुष्प्रचार करके इनके वंशजों की आपसी मूक सहमति और गठबंधन को भी न केवल तोड़ डाला, बल्कि नदी के दो किनारों पर इनको ला खड़ा किया। रही - सही कसर इनके वंशजों के बीच उत्पन्न वैसे राजनीतिक ठेकेदारों ने पूरी कर दी, जो अपनी-अपनी जाति का हितैषी होने का दावा करते हैं। 

खैर! इस बात की चिंता नहीं, चिंतन करने की आवश्यकता है। दशा सामने है- दुर्दशा अभी बाकी है। 
दो राय नहीं और इतिहास गवाह है कि श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की जोड़ी ने आधुनिक बिहार का बखूबी निर्माण किया। इनके मृत्यु उपरांत किस तरह बिहार जातीय रंगों में रंगता जा रहा है, और किस प्रकार इनके अनुयायियों को आज नरसंहार का शिकार होना पड़ा, और अब तो न्याय से भी वंचित करने का प्रयास हो रहा है। 
इन बातों को इतिहास की रोशनी में उजागर किए जाने की आवश्यकता मैंने महसूस की है।

(लेखक :डॉ. मनोज कुमार, इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय पटना)



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