प्रधानमंत्री वैक्सीनेशन नीति में पारदर्शिता लायें

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प्रधानमंत्री वैक्सीनेशन नीति में पारदर्शिता लायें

  • सरकारी दावा है कि वैक्सीन के मामले में भारत पूरे विश्व में सिरमौर है, जबकि जमीनी हकीकत इसके उलट ही है
  • चूंकि टीकाकरण में कई चुनौतियां आ रही हैं, तो समाधान परिप्रेक्ष्य से कुछ बातों पर गौर करना चाहिए
Vaccination Policy of Central Government, Hindi Article

लेखक: संजय रोकड़े (Writer Sanjay Rokade) 
Published on 25 May 2021 (Last Update: 25 May 2021, 10:11 AM IST)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जो लोग करीब से जानते हैं, वो ये बेहतर समझते हैं कि वे एक निहायत ही अडिय़ल किस्म के इंसान हैं। इतिहास गवाह है कि नरेन्द्र की हठधर्मिता और मनमौजीपन का हासिल तबाहियां या बरबादियां ही रही हैं। अतीत के कई किस्से कहानियां मौजूं हैं, जो यह भी साबित करते हैं कि उनको सच न बोलने की भी बड़ी बीमारी है। 

हम इन कहानी किस्सों पर फिर कभी बात करेगें, लेकिन अभी एक ताजे मामले पर बात करते हैं। 
आप सब ये अच्छे से जानते हैं कि देश में फैली कोरोना महामारी पर अंकुश लगाने का सबसे आसान और सरल तरीका वैक्सीनेशन हो सकता है, लेकिन वैक्सीनेशन की नीति को लेकर मोदी सरकार, खासकर नरेन्द्र मोदी ने जो लापरवाही व अनियमितता दिखाई है, उसका सच जानने के बाद आप सिर पीटने के सिवाय कुछ नही कर सकते हैं।

सब इस बात से अवगत है कि आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में वैक्सीन की भारी किल्लत है, लेकिन ये बात जानकर आपको हैरानी होगी कि इस किल्लत से होने वाली तबाही की आशंका संसद की स्थायी समिति ने मार्च महीने में ही जाहिर कर दी थी। इस तबाही पर अंकुश लगे, इसके लिए समिति ने इसके लिए मोदी सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें सरकार से अपील की गई थी कि तुरंत वैक्सीन का उत्पादन युद्ध स्तर पर बढ़ाया जाए लेकिन तब इस अपील पर अमल नही किया गया।

दरअसल, विज्ञान प्रोद्यौगिकी और वन पर्यावरण संबंधित संसद की स्थायी समिति ने इसी साल फरवरी-मार्च महीने में अपनी बैठक में वैक्सीनेशन पर गहन चर्चा की थी। इसके बाद एक रिपोर्ट बनाई, जिसे संसद के पटल पर 8 मार्च को रखा गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि 31 सदस्यों वाली इस कमेटी में 14 सदस्य सत्ताधारी दल से हैं।

इस कमेटी में शामिल एक सदस्य ने इस बात कि पुष्टि की है कि कमेटी के अनेक सदस्यों ने भारत में विकसित और निर्मित दोनों तरह के टीकों का उत्पादन युद्ध स्तर पर बढ़ाए जाने के साथ टीकाकरण की गति को तेज करने की सिफारिश की थी। इसके साथ ही कमेटी ने यह भी सिफारिश की कि उत्पादन और टीकाकरण की गति दोनों को समानुपातिक तौर पर पूरे तालमेल के साथ बढ़ाया जाना चाहिए, ताकि समाज के अंतिम और जरूरतमंद इंसान को आसानी से टीका लगाया जा सके।

इसके साथ ही रिपोर्ट में ये भी सुझाव दिया गया कि बायोटेक्नॉलाजी विभाग को इस बाबत रिसर्च करने के लिए अतिरिक्त बजट का भी प्रावधान करे। बता दें कि समिति के सदस्यों ने इसी रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया कि प्राथमिकता वाले ग्रुप के अलावा इसी अवधि में अन्य लोगों को भी कैसे टीका दिया जा सके, उसके भी इंतजामों पर विचार हो। 

बच्चों के टीकाकरण पर भी कमेटी के सदस्यों ने चर्चा कर सुझाया कि देश में सभी बालिगों के टीकाकरण के लिए कम से कम 1.3 बिलियन खुराकों की जरूरत पड़ेगी, लेकिन सरकार की ओर से पेश आंकड़ों के मुताबिक उत्पादन तो सिर्फ कुछ लाख का ही हो पा रहा है। जाहिर है कि उत्पादन क्षमता बढ़ाए बिना सबको टीका मिलना आसान नही है। कह सकते हैं कि टीकों की कमी के चलते ही तमाम राज्यों में उथल पुथल मची हुई है।

दरअसल सच तो यह है कि संसद की स्थायी समिति की सिफरिशों पर मोदी सरकार के किसी भी जिम्मेदार नुमांईदे ने ध्यान देने की कोशिश ही नहीं की। सिफारिशों की अवहेलना का आलम यह था कि रिपोर्ट की तमाम जायज बातों को तवज्जों ही नही दी गयी। वैक्सीनेशन को लेकर देश की स्थिति आज सबके सामने है। अब जब हालात हाथ से निकल कर बेकाबू हो गए हैं, तब तमाम तरह के जतन की नाटक- नौटंकी की जा रही है।

हालांकि कोरोना वायरस के इस महासंकट से निपटने के लिए देश में वैक्सीनेशन का काम तो जारी है, लेकिन इस वक्त सबसे बड़ी समस्या वैक्सीन की कमी है। अभी भी देश के तमाम राज्य वैक्सीन की कमी का रोना रो रहे हैं। अब जब हालात बद से बदतर होने को आए तो सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को ड़ंडा कर दिया है, लेकिन बेहआयी का आलम ये है कि केन्द्र सरकार ने वहां भी अदालत को गुमराह करने की कोशिश की। मतलब यहां भी आधी हकीकत, आधा फसाना वाली तर्ज पर पूरा सच न बता कर वैक्सीन की जवाबदेही से बच निकलने की ही कवायद की।


देश में यह बात तो खूब बढ़ चढ़कर प्रचारित-प्रसारित की जा रही है कि दवाई बगैर ढिलाई नहीं, मगर दवाई याने वैक्सीन का तो अब तलक कोई अता पता नही है। आज टीकाकरण की धीमी गति के चलते लाखों घरों में मातम पसरा है।

वैक्सीन की बुरी तरह से कमी के बावजूद सरकारी दावा है कि वैक्सीन के मामले में भारत पूरे विश्व में सिरमौर है, जबकि जमीनी हकीकत इसके उलट ही है। सच तो ये है कि भारत में पिछले 4 महीने में सिर्फ 2.3 फीसदी लोगों को ही वैक्सीन की दोनों डोज लग पाई है। दस करोड़ से ज्यादा लोगों को वैक्सीन की दूसरी डोज अब तक नहीं मिली है। जब सुप्रीम कोर्ट ने वैक्सीनेशन के सच जानने के लिए सरकार का पक्ष जानना चाहा, तो वहां भी मोदी सरकार ने एक हलफनामे के माध्यम से सच को सामने नही रखा।

बता दें कि सरकार के जिम्मेदारों ने सुप्रीम कोर्ट में वैक्सीन पर अधूरे तथ्यों, बेतुके तर्कों और कानून की गलत व्याख्या करके झूठ- सच का खेल, खेलकर न केवल अदालत को गलत जानकारी दी, बल्कि देश की जनता को भी गुमराह करने का कुत्सित प्रयास किया है। हम सरकार की इस चालबाजी को कुछ बिंदुओं के सहारे जानने का प्रयास करते हैं।

सबसे पहले तो ये जान लें कि इस समय मोदी सरकार इंसान के तमाम मानव अधिकारों की अवहेलना कर रही है। संविधान के अनुच्छेद 14 का सीधे-सीधे उल्लंघन कर वैक्सीन की दो निजी कंपनियों को मुनाफे की खुली छूट दे रही है। 

आलम यह है कि दस लाख से कम मरीजों को ऑक्सीजन की प्राण वायु देने के लिए तमाम फैक्ट्रियों और उद्योगों में ताला लगा दिया है। आपदा प्रबंधन और महामारी कानून के तहत केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों ने हजारों निजी अस्पताल, लैब, दवा समेत अधिकतर निजी क्षेत्र की सेवा और मूल्यों पर नियंत्रण कर लिया है। जनता को लुटने का खेल बदस्तूर जारी है। केन्द्र की मोदी सरकार ने इस फर्जीवाड़े पर आंखें बंद कर ली है और जनता को बरबाद करने का पूरा माहौल बना दिया है।

जगजाहिर है, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) में बनने वाली वैक्सीन के ट्रायल में सरकारी संस्थान आईसीएमआर ने बड़ा निवेश किया है। सबसे पहले पेटेंट कानून की धारा 92 और 100 के तहत सरकारी कंपनियों को वैक्सीन के फॉर्मूले के इस्तेमाल करने का हक मिलना चाहिए, उसके बाद ही निजी कंपनियों को। लेकिन मुनाफाखोरी और कालाबाजारी के लिए माहौल बना कर नीति कंपनियों को तवज्जो दी गई।

कच्चे माल की थोक खरीदी नीति का भी खुदा ही मालिक है। जबकि स्थिति-परिस्थिति को देखते हुए कच्चे माल की थोक व्यवस्था का माकुल प्रबंधन किया जाना चाहिए था। लेकिन इन सब पर न विचार किया गया, न ही अदालत को इससे अवगत कराया गया।

चुनावी रैलियों में तो चिल्ला चिल्ला कर प्रधानमंत्री ने फ्री वैक्सीन देने का झुठा वादा किया, और अब जब वक्त आया तो पल्ला झाड़ लिया। सनद रहे कि फरवरी 2021 में बजट के बाद हुई चर्चा में व्यय सचिव ने स्पष्ट कहा था कि 35 हजार करोड़ की आवंटित धनराशि से 50 करोड़ लोगों को वैक्सीन दी जाएगी। प्रति व्यक्ति 700 रुपए के मद में टीके की दोनों डोज के साथ ट्रांसपोर्ट और सभी खर्चे शामिल रहेंगे, मोदी अपने ही उस फैसले पर अमल नही कर रहे हैं। केन्द्र सरकार इस फैसले के अनुसार ही काम कर ले, तो पूरे देश में वैक्सीन तो लगे ही, बल्कि 'एक भारत, स्वस्थ भारत' का सपना भी साकार होते दिखे।

वैक्सीन की कीमत को लेकर भी पूरी तरह से फर्जीवाड़े को बढ़ावा देने वाली नीति को तवज्जो दी गयी। काबिलेगौर हो कि सरकारी मोलभाव के अनुसार केंद्र को 150, राज्यों को 400 और निजी अस्पतालों और कंपनियों को 1200 रुपए की दर से वैक्सीन के भाव तय किए, जबकि वैक्सीन का दाम एक ही होना चाहिए था। तीन तरह के दाम तय करके वैक्सीन की कालाबाजारी की खुले रूप में छूट दे दी।

सच तो यह है कि केंद्र और राज्यों को समान दर 150 पर ही वैक्सीन मिलनी चाहिए थी, और समर्थ जनता व निजी अस्पतालों को 1200 की दर से केंद्र सरकार के माध्यम से सप्लाई होनी चाहिए थी, ताकि वैक्सीन कंपनियों के अनुचित मुनाफे पर लगाम लगती, साथ ही राज्यों का भी वित्तीय बोझ कम होता। वैक्सीन नीति पर मोदी निर्लज्जता का आलम यह है कि वैक्सीन को जीएसटी से भी छूट नही दी गयी।


स्वास्थ्य की राष्ट्रीय आपदा में भी मुनाफाखोरी!

इस सरकार में थोड़ी सी भी मानवता बची हो,तो वैक्सीन को जीएसटी से अविलंब छूट दे देना चाहिए। हो सके तो टोकन यानी नाममात्र की जीएसटी लगाए जाने का प्रावधान होना चाहिए। गर ऐसा होता है तो इससे वैक्सीन की कीमतों में कमी होने के साथ ही उत्पादकों को इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ भी मिल सकेगा।

सच तो यह है कि मोदी सरकार वैक्सीनेशन की चुनौतियां वक्त रहते पहचान कर टीके का खर्च राज्य सरकारों पर थोपने के फैसले पर फिर विचार करना चाहिए। अभी भी देश में वैक्सीन की सप्लाई मांग से बहुत बड़ी खाई है। सरकार द्वारा 18 से 44 साल के लोगों को वैक्सीन लगाने के फैसले के बाद लक्षित जनसंख्या तीन गुना (33 करोड़ से 94 करोड़) हो गई है, जबकि वैक्सीन की आपूर्ति लगभग वही है (सात से आठ करोड खुराक प्रतिमाह)।

इसमें कोई दो राय नही है कि अभी इस महामारी से लडऩे में वैक्सीन एक अहम औजार है, लेकिन इसकी सफलता के लिए जरूरी है कि हर लक्षित व्यक्ति तक समय पर वैक्सीन पहुंचे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए इससे बढ़ कर हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है कि वे अभी तक वैक्सीन की कमी को तो खत्म नही कर पाए, लेकिन इस मसले पर एक राय भी नही बना पाए हैं।

आज मोदी सरकार पूरी तरह से अपनी साख खो चुकी है। इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की किसी भी बात पर किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को विश्वास नही रहा है। इस स्थिति के लिए स्वंय मोदी जिम्मेदार हैं। कहना गलत नही होगा कि वे अपनी झूठी साख के निर्माण के लिए धरातल की दिक्कतों को नजर अंदाज कर, हवाबाजी में फैसले ले लेते हैं।

बतौर उदाहरण समझें कि देश में टीका नही होने के बावजूद उन्होंने टीकोत्सव मना लिया। इसके साथ ही 45 साल से कम उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू करके अफरा तफरी मचा दी। आज किसी को भी टीके की सहज उपलब्धता नही है। देश भर में टीके की आपूर्ति कम हो रही है। इससे राज्यों में प्रतिस्पर्धा बढी और टीका कंपनियों की मनमर्जी को अवसर मिला। अब सभी के लिए टीकाकरण को लेकर राज्य उत्सुक नहीं दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि रोजाना 30 लाख खुराक की आपूर्ति नहीं हो रही है। केंद्र उनकी मांग मानने को लेकर लापरवाह है, और पिछली नीति को बदलकर एक नई 'उदारीकृत' योजना बनाने को लेकर संवेदनहीन।

सनद रहे कि किसी भी वैक्सीन-पॉलिसी में जल्द से जल्द और हर संभव आपूर्ति बढ़ाने की दरकार होती है। कम कीमत पर टीके की खरीदारी, मध्यम अवधि की योजना और प्रभावी ढंग से टीके का बंटवारा अभी व भविष्य में भी जीवन बचाने में सक्षम है। मगर मौजूदा नीति ऐसा करने में कारगर साबित नहीं है। हम टीके को उसी तरह से खरीद रहे हैं, जैसे महीने में राशन का सामान।


काबिले गौर हो कि वित्त मंत्री ने कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक को क्रमश: 3,000 करोड़ और 1,567 करोड़ रुपये एडवांस दिए जाएंगे, लेकिन बजाय इसके उन्हें लगभग आधा ही भुगतान किया गया। इसके चलते 16 करोड़ खुराक की आपूर्ति 157 रुपये प्रति टीके की दर पर हुई। यदि लक्ष्य 50 लाख खुराक प्रतिदिन है, तो यह सिर्फ एक महीने की आपूर्ति है। इसका अर्थ है कि केंद्र सिर्फ 45 से अधिक उम्र की आबादी के टीकाकरण में मदद करेगा, बाकी की आपूर्ति संभवत: अन्य कंपनियों से पूरी की जाएगी और बाकी का टीकाकरण राज्यों का काम है।

ऐसे में, भविष्य की किसी उम्मीद के बिना टीका बनाने वाली कंपनियां क्या आपूर्ति बढाने को लेकर निवेश करेंगी? फिलहाल, स्पूतनिक-वी को मंजूरी मिल गई है और उससे कुछ लाख खुराक का आयात किया जाएगा। कहा जा रहा है कि छह कंपनियां टीके देने को तैयार हैं, लेकिन अभी इस बाबत आदेश का इंतजार है। जॉनसन और नोवावैक्स को अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। दोनों ने भारतीय साझीदार खोज लिए हैं, और उम्मीद है कि वे मौजूदा जरूरत के मुताबिक केंद्र सरकार के बजाय सूबे की सरकारों से बातचीत करें। 

Vaccination Policy of Central Government, Hindi Article

चूंकि टीकाकरण में कई चुनौतियां आ रही हैं, तो समाधान परिप्रेक्ष्य से कुछ बातों पर गौर करना चाहिए। पहली, भारत सरकार को कोवीशील्ड के दो टीकों के बीच का अंतर 12 हफ्ते कर देना चाहिए (अब यह किया जा चुका है)। इसके पर्याप्त वैज्ञानिक साक्ष्य हैं कि कोवीशील्ड के दो टीकों में जितना अंतर होगा, वैक्सीन उतनी ही प्रभावी होगी। इसके अलावा, सभी आयुवर्ग के जिन लोगों को आरटी-पीसीआर जांच में कोविड पाया गया हो, वे टीकाकरण के लिए संक्रमण के बाद चार से छह महीने गुजरने का इंतजार कर सकते हैं। संक्रमण के बाद व्यक्ति में करीब छह महीने एंटीबॉडी रहती हैं। इससे कुछ करोड़ टीके उन लोगों को उपलब्ध हो जाएंगे, जिन्हें पहली खुराक का इंतजार है, साथ ही, वैक्सीन का उत्पादन व आपूर्ति बढ़ाने के लिए भी समय मिल जाएगा।


इससे टीकाकरण केंद्रों पर वैक्सीन की कमी से होने वाली अफरातफरी से भी बचा जा सकता है। सबसे पहले यह भी ध्यान दिया जाए कि विशेष कार्यान्वयन पहल से यह सुनिश्चित हो कि वैक्सीनेशन में समानता हो, जैसे झुग्गी झोपड़ी और प्रवासी मजदूरों के टीकाकरण के लिए मोबाइल वैन पर विचार किया जा सकता है। ऐसी ही पहल ग्रामीण, पर्वतीय और अन्य मुश्किल पहुंच वाले इलाकों के लिए होनी चाहिए। पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम व नियमित टीकाकरण अभियान से मिले सबक का इस्तेमाल कोविड वैक्सीन को समय पर और समाज के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने में किया जाना चाहिए।

यह जरूरी है कि टीकाकरण की नीति आसान बनाई जाए। उदाहरण के लिए राज्यों को वैक्सीन निर्माताओं से सौदेबाजी का अनुभव नहीं है और उन्होंने पिछले बजट में वैक्सीन के लिए प्रावधान भी नहीं किया है। भारत के चार दशक पुराने राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में सभी वैक्सीन की केंद्रीकृत खरीद होती रही हैै। अच्छा होगा, वैक्सीन केंद्र सरकार एक समान दर पर खरीदे और सभी को मुफ्त उपलब्ध कराए।



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