Joyland: इंसानियत 'संवेदना का ज़रूरी चित्रण' है फिल्म! 'Oscar Nominated' Film Review in Hindi

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Joyland: इंसानियत 'संवेदना का ज़रूरी चित्रण' है फिल्म! 'Oscar Nominated' Film Review in Hindi


Joyland: Film Review in Hindi, Oscar Nominated Movie from Pakistan
लेखक: सौरभ 'सहज'
Published on 6 March 2023

ऑस्कर को फिल्मी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सम्मान माना जाता है, जिसमें एंट्री पाना हर देश की फिल्म के बस की बात नहीं होती। अगर किसी देश की किसी फिल्म को ऑस्कर में एंट्री मिलती है, तो उस देश के लिए ही नहीं, बल्कि उस देश के सिनेमा के रचनात्मक सृजनहारों के लिए बहुत गर्व की बात होती है। जो समूचे विश्व को कुछ संदेश दे पाती है। 
ऐसी ही एक फिल्म पाकिस्तान ने बनाई जिसका नाम है "जॉयलैंड" जिसे 2022 में कान्स फिल्म फेस्टिवल में सराहा गया, अवॉर्ड मिला। इस फिल्म को ऑस्कर में एंट्री भी मिली, लेकिन पाकिस्तान ने ही इसे अपने देश में बैन कर दिया। न केवल पाकिस्तान ने, बल्कि कई इस्लामिक देशों ने इस फिल्म पर रोक लगा दी है। 

चूंकि फिल्म दर्शकों तक पहुँच चुकी थी, इसलिए सिनेमा की दुनिया से जुड़े एक मित्र ने मुझे भेजी और जोर डाल कर कहा कि इस फिल्म को जरूर देखो। मैंने पिछले तीन-चार सालों से कोई फिल्म किसी भी प्लेटफार्म या सिनेमाघर में नहीं देखी, हाँ कभी कभार ट्रेलर, टीजर और थोड़ी बहुत देर तक जरूर देख ली है, बहरहाल मैं "जॉयलैंड" के कथानक पर बात करता हूँ। 

जॉयलैंड को देखते समय लग रहा था, जैसे कोई सामान्य एशियाई मुस्लिम परिवार की रोजमर्रा की कहानी है। जैसे ही फिल्म थोड़ी आगे बढ़ती है, और समझ की परत से मजहबी सभ्यता का पर्दा हट जाता है, तब लगने लगता है कि यह तो हमारे समाज के बीच रह रहे किसी भी समान्य परिवार की कहानी है। 

एक छोटा सा परिवार जिसमें एक बाप के दो बेटे हैं, दोनों की शादी हो चुकी है। परिवार में बुजुर्ग बाप की चाहत है कि घर में लड़का पैदा हो, लेकिन बड़ी बहू तीन लड़कियों को जन्म दे चुकी होती है। पूरा परिवार छोटे बेटे के परिवार से अधिक उम्मीद लगा लेता है। चूंकि पिता जी अकेले हैं, उनकी पत्नी नहीं है, वहीं पड़ोस में एक उसी उम्र की महिला के पति का देहांत हो चुका होता है। दोनों के बुढ़ापे के अकेलेपन को फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। 

एक सीन में बकरे को हलाल करने के लिए कसाई को बुलाया जाता है, लेकिन वह नहीं आता है। बुजुर्ग बाप अपने छोटे बेटे की ओर इशारा करके कहता है कि 'मर्द है मेरा बेटा', यही हलाला करेगा, लेकिन वह नहीं कर पाता है, जबकि उसकी पत्नी उस बकरे को आसानी से हलाल कर देती है। औरत की ताकत और मर्द की कोमलता को इस सीन में बहुत अच्छे से दिखाया गया है।
 

कहानी आगे बढ़ती है, तो उसके संकेतों को समझना होता है। जो छोटा बेटा होता है, उसका आकर्षण महिलाओं के प्रति न होकर पुरुषों से होता है, लेकिन वह पूरी जिंदगी यह बात किसी को नहीं बता पाता। उसे नौकरी मिलती है एक थिएटर में, जो एक खुसरे के साथ उसके शॉ में सपोर्टिंग डांसर की होती है। वह पूरे परिवार को झूठ बोल देता है, लेकिन जब यह बात अपनी पत्नी को बताता है, तो उसकी पत्नी उससे पूछती है कि आपको काम अच्छा लग रहा है? वह हां कहता है, तो पति-पत्नी के बीच रिश्ते के विश्वास को दर्शाया गया है। एक पति-पत्नी परिवार की जिम्मेदारियों को हथियार बनाकर दंपत्ति के संबंध को कायम ही नहीं कर पाते, दोनों चीजों को समझ रहे होते हैं लेकिन कहने की हिम्मत दोनों के पास नहीं है। 

खुसरा की चाहत ऑपरेशन करवा कर महिला बनने की होती है, जिससे वह उस लकड़े के साथ संबंध बना सके, इज्ज़त की जिंदगी जी सके। लेकिन उससे पहले ही उत्तेजना में संबंध बनाने की कोशिश के दौरान उसे पता चलता है कि कोई इंसान शारीरिक रूप से खुसरा न होकर मर्द या औरत न होते हुए भी हार्मोन्स के कारण मानसिक रूप से मर्द या औरत नहीं होते। 

उधर छोटे लड़के की पत्नी की शारीरिक आपूर्ति के लिए वह अपने पुराने दोस्त से संबंध बनाती है, तो गर्भवती हो जाती है। डॉक्टर जांच के दौरान कहता है कि लड़का है। घर वाले उसे छोटे बेटे का अंश समझकर खुशी मना रहे होते हैं, और कहते हैं कि घर में एक मर्द आ गया। छोटी बहू को समझ आता है कि मर्द उसके पति जैसा भी हो सकता है। उसे पति के साथ किया गया विश्वासघात महसूस होता है, उससे भी आगे यह समझ आता है कि उसका पति ऐसा है, तो उसमें उसका क्या दोष?
उसे अपराधबोध होता है। उसे यह भी लगता है कि उसका बेटा अगर ऐसा निकल गया तो? जबकि परिवार को मर्द चाहिए। इस दबाव को वह सह नहीं पाती और शरीर त्याग देती है। 

इन तमाम सवालों को उठाते हुए बड़ी ही संजीदगी, संवेदना और खूबसूरती से बिना किसी फूहड़पन के साथ फिल्म को बनाया गया है। इस फिल्म ने समूचे मर्द-औरत के अस्तित्व से संकेतात्मक सवाल पूछे हैं कि इंसान के रूप में इंसान का रिश्ता क्या है? 

किसी मर्द या औरत के जीवन में इंसानी अस्तित्व के खुसरों को कितना स्पेश असल ज़िंदगी में दिया जाता है? क्या आपका कोई दोस्त 'खुसरा' है? समाज को इंसान नहीं, मर्द-औरत के घेरे ने क्लॉज्ड कर रखा है। 

वहीं बुढ़ापे के अकेलेपन को, परिवार में लड़का पैदा करने के दबाव को, रोजी-रोटी की जद्दोजहद को, और सबसे ज्यादा शारीरिक संबंध की आवश्यकता, संबंधों के अनुबंधों और औरत-मर्द के समाज की सीमाओं को बखूबी समझाया गया है। 

पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में ऐसी फिल्म बनना अपने आप में बड़ी बात है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी, डायलॉग, पटकथा और किरदारों का अभिनय भी बेहतर है। आपको भी अगर देखने को मिले तो जरूर देखें। कथानक असरदार है, संकेतों में है। फूहड़पन और अश्लीलता के दृश्य नहीं हैं।


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