'चंग की ताल' पर होली का लुफ्त उठाते हैं लोग - Rajasthani Cultural Article in Hindi

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'चंग की ताल' पर होली का लुफ्त उठाते हैं लोग - Rajasthani Cultural Article in Hindi

Chang ki Taal, Rajasthani Cultural Article in Hindi, Dhap Wadan
लेखक: रमेश सर्राफ धमोरा (Writer Ramesh Sarraf Dhamora)
Published on 6 March 2023

बसंत पंचमी के दिन से ही राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में होली का हल्ला शुरू हो जाता है। क्षेत्र के हर गांव, मोहल्लों में अपनी- अपनी चंग (ढफ़) पार्टी होती है। चंग बजाने के साथ धमाल गाने का सिलसिला बसंत पंचमी से शुरू होकर गणगौर तक चलता है। चंग वादन की अभिव्यक्ति इतनी प्रभावशाली होती है कि ढफ़ पर थाप पड़ते ही लोगों को नाचने पर मजबूर कर देती है। चंग के साथ गाये जाने वाले लोक गीतों को धमाल के नाम से जाना जाता है। इन धमालों में होली से सम्बन्धित स्थानीय किस्से, कहावतें होती हैं, जिनका धमाल के रूप में गाकर वर्णन किया जाता है।

होली के दिनों में बजाये जाने वाले चंग के साथ धमाल व होली के गीत गाये जाते हैं। पुरुष चंग को अपने एक हाथ से थामकर और दूसरे हाथ से छड़ी के टुकड़े से व हाथ की थपकियों से बजाते हैं। साथ में झांझ, मंजीरे बजाते रहते हैं। एक घेरा बनाकर लोग धमाल गाते हैं। इसमें भाग लेने वाले पुरुष ही होते हैं, किंतु उनमें से कुछ पुरूष, महिला वेष धारण कर नाचते हुये लोगो का मनोरंजन करते हैं। चंग वादन के बीच में गांव के पुरुषों द्वारा विभिन्न प्रकार के सांग निकाले जाते हैं। गांवो में ढफ़ मण्डली की कोई विशेष वेश-भूषा नहीं होती है। लोग प्रतिदिन पहनने वाले कपड़े पहनकर ही ढफ़ बजाते हैं।

ढफ़ वादन का आयोजन रात को होता है। ढफ़ वादन बहुत ही अनुशासित, व्यवस्थित तरीके से होता है। शेखावाटी इलाकों में देर रात तक ढ़प की थाप पर गूंजती होली की धमाल फाल्गुनी रंग को परवान चढ़ा देती है। गांवों की चौपालों पर रसिकों की टोलियां ढफ़ की थाप पर थिरकते हुए दिखाई देती है। कलाप्रेमी होली तक चलने वाले इन आयोजनों में धमालों की टेर लगाते हैं। जो देखने-सुनने वालों को भी क्षेत्रीय संस्कृति के आनंद की अनुभूति करवाती है। पहले गांवों में होली के दिनों में औरतें घरों के बाहर चौक में इक्कठी होकर होली के गीत गाती थीं, जिन्हें क्षेत्र में होली के बधावा (Holi ke Badhawa) गाना कहा जाता है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। 

शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी भी व्याप्त है। परिवार में पुत्र के जन्म होने पर उसके ननिहाल पक्ष से कपड़े, मिठाई दिये जाते हैं, जिनकी पूजा कर बच्चे को कपड़े पहनाये जाते हैं व मिठाई मोहल्ले में बांटी जाती है। आजकल क्षेत्र में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान के अन्तर्गत बेटी जन्म को बढ़ावा देने के उदेश्य से गांवों में बेटी के जन्म पर भी ढ़ूंढ़ पूजना प्रारम्भ हुआ है। जो कन्या भ्रूण हत्या रोकने की दिशा में एक सकारात्मक प्रयास साबित होगा।

चंग का निर्माण भेड़ के चमड़े को धूप में सुखा कर काठ के गोल घेरे में इस चमड़े को चढ़ाकर किया जाता है। इस पर हल्दी का लेप लगाया जाता है। इन चंगों पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाने के साथ ही ढफ़ मण्डलियों के नाम भी लिखे जाते हैं। वर्षों से ढफ़ बना रहे चिराना के दौलतराम सैनी ने बताया कि चिराना में बनने वाले ढफ़ वजन में हल्के व मजबूत होते हैं। ढफ़ का घेरा बनाने के लिए आम के पेड़ की लकड़ी काम ली जाती है, जो काफी हल्की और मजबूत होती है। ढफ़ अमूमन 22 से 32 इंच तक के होते हैं। चंगों पर मंढऩे के लिए भेड़ की खाल मंगवाई जाती है। खाल को आकड़े के दूध से साफ करके गुड़, मेथी, गोंद का घोल बनाकर उससे खाल को लकड़ी के घेरे पर चिपकाया जाता है। इसे छांव में ही सुखाया जाता है। नवलगढ़ में ढफ़ बनाने वाले मिंतर खटीक ने बताया कि वह अपना पुस्तैनी काम संभाल रहा है। लेकिन अब धीरे-धीरे चंग का प्रचलन कम होने लगा है।

ढफ़ बनाने वालों का कहना है कि किसी जमाने में हमारे पास खरीददारों की लाइन लगती थी। लेकिन अब स्थिति बिल्कुल विपरीत है। नए लोगों का रूझान दिन-प्रतिदिन घटने तथा मंहगाई के कारण इनकी ब्रिकी घटने लगी है। ढफ़ विक्रेताओं का कहना है कि आज के युवा को ढफ़ बजाना भी नहीं आता है, वो सिर्फ कैसेट के माध्यम से ही धमाल सुनते हैं। इनकी जगह फिल्मी गानो ने ले ली है। पहले जहां बसंत-पंचमी से ही ढफ़ की आवाज सुनने लग जाती थी, वो अब होली पर भी सुनाई नहीं दे रही है। शहरों में जरूर कई संस्थान धमाल पार्टी का आयोजन करवाते हैं। क्षेत्र में मण्डावा, फतेहपुर शेखावाटी, रामगढ़ शेखावाटी की ढफ़ मण्डलियां कोलकाता, मुम्बई, चैन्नई, बेगलुरू, हैदराबाद,सूरत,अहमदाबाद सहित देश,प्रदेश के विभिन्न शहरों में अपनी प्रस्तुतियां देने जाती रहती है। सरकारी स्तर पर इस लोककला को जिन्दा रखे हुये कलाकारों को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। हालात ऐसे ही रहे, तो आने वाली पीढ़ी होली की बाते सिर्फ कहानियों में ही सुना करेगी।


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