लुप्त होती किन्नौरी 'श्रम कलाएँ'

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लुप्त होती किन्नौरी 'श्रम कलाएँ'

  • वर्तमान समय में, बाहरी क्षेत्रों से सम्पर्क में आने के कारण, ‘किन्नौरी समाज’ भी आधुनिकता की आँधी में बहने लगा है। जिसके चलते...
  • प्रत्येक जनजातीय क्षेत्र अपनी परम्परागत संस्कृति को संजोये रखना चाहता है, और दूसरी ओर हम किन्नौर वासी खुद ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को मिटाने पर तुले हैं...

Kinnaur old art and Artists, Hindi article by Sapna Negi

लेखिका: सपना नेगी (Writer Sapna Negi)
Published on 2 Jul 2021 (Update: 2 Jul 2021, 10:05 PM IST)

जनजातीय क्षेत्रों में बांस मानव सभ्यता से जुड़ी प्राचीनतम प्राकृतिक सामग्रियों में से एक है, जिसका प्रयोग अनेक प्रकार से होता रहा है। ‘किन्नौरी समाज’ में भी सुचूल अर्थात् बांस से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुओं का प्रयोग अतीत काल से होता आ रहा है। 

इन वस्तुओं का यहाँ के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यदि यह कहा जाए कि यह, कभी यहाँ के निवासियों की घर की शान हुआ करती थी, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। खेत-खलिहान से लेकर घर-आंगन या फिर उत्सव, त्योहारों के समय में बांस से बनी चीजें यहाँ प्रयुक्त होती रही हैं। पहले यहाँ इन वस्तुओं के बिना दैनिक कार्य करने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। 

इस काम में यहाँ के बांस-शिल्पी इतने माहिर होते हैं, कि उनकी बनाई गयी वस्तुओं को देखकर कोई भी उनके प्रति आकर्षित हो जाए। यहाँ बांस से सामग्री बनाने का यह काम चनालङ् (चनाल) जाति द्वारा किया जाता रहा है,  और आज भी उन्हीं के कारण यह कला जीवित है। यह कला उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है, जिसे वे आज भी संजोये हुए हैं। इन शिल्पकारों द्वारा बनाई गई चीजें, जैसे- छाटो (टोकरी), कोटिंग (किल्टा), यांग छामे (बड़ी टोकरी) और चागेर (करंडी) यहाँ के जीवन का मुख्य अंग हैं। इनके द्वारा बनाई गई हर वस्तु में इनकी मेहनत साफ़ - साफ़ झलकती है, जबकि बांस लाने, ले जाने के लिए इन्हें कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। 


किन्नौर के कई गाँव ऐसे हैं, जहाँ बांस गाँव के आसपास नहीं मिलता। इसे लाने के लिए गाँव से दूर जंगल जाना पड़ता है। जंगल का रास्ता काफी मुश्किलों से भरा होता है, साथ ही आजकल वन अधिकारी इसे काटने से टोकते भी हैं, जबकि पिछले समय  में जाएँ, तो तब इसे काटने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। इन सभी मुसीबतों को झेलने के बाद भी इन शिल्पकारों को, इस व्यवसाय से, उतना फायदा नहीं हो रहा, जितना कि कड़ी मेहनत के बदले मिलना चाहिए।

वर्तमान समय में, बाहरी क्षेत्रों से सम्पर्क में आने के कारण, ‘किन्नौरी समाज’ भी आधुनिकता की आँधी में बहने लगा है। जिसके चलते वह अपनी परम्परागत चीज़ों के साथ-साथ आधुनिक बाज़ार से बनी चीजें भी प्रयोग में लाने लगे हैं। बांस की जिन चीज़ों का वह पहले प्रयोग करते थे, उनके साथ ही, अब प्लास्टिक की चीजें भी प्रयोग करने लगे हैं। किन्नौरवासी पहले इन वस्तुओं के लिए जहाँ सिर्फ यहाँ के बांस शिल्पी पर निर्भर थे, अब उनके पास और भी विकल्प आ गये हैं। इस कारण इन शिल्पकारों को न तो पहले जैसा काम मिल पा रहा है, और न ही उनके काम को वह सम्मान मिल पा रहा है, जो पहले मिलता था। 

न ही उनका गुज़ारा अब केवल इस काम पर निर्भर रह कर हो रहा है। न ही आज की पीढ़ी, उनकी संतान, इस काम को करने को तैयार हो रही है। 
आगे आयें भी तो कैसे, जब उन्होंने इस काम में अपनों और बुज़र्गों को संघर्ष करते देखा है, और उसके बाद भी कोई विशेष आमदनी इनकी नहीं हो रही। इसलिए वर्तमान में, कुछ ही बुजुर्ग शेष रहे हैं, जो अपने इस पुश्तैनी काम को लुप्त होने से बचा रहे हैं। 

ऐसे में क्या हम किन्नौर वासियों का फर्ज़ नहीं बनता कि हम इस परम्परा को इस तरह समाप्त होने के कगार से बचा पाएँ? 


जब प्राचीन समय से ही बांस से बनी वस्तुओं का प्रयोग हमारे पूर्वज करते आए हैं, तो हम इसका स्थान प्लास्टिक को कैसे दे सकते हैं? इस आधुनिकता के बहाव में आकर न जाने कितनी ही परम्परागत वस्तुओं को हम बनावटी सुंदरता के चक्कर में पहले ही खो चुके हैं। ऐसा ही हमारा रवैया रहा तो एक दिन ऐसा आएगा, जब हमारे पास परम्परागत श्रम-कलाओं के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं बचेगा।

अगर हमें अपनी प्राचीन कलाओं को सुरक्षित रखना है, तो इसका संरक्षण होना बहुत जरूरी है। माना समय के साथ बदलाव जरूरी है, पर हमें इस ओर भी ध्यान देना होगा कि कहीं नवीनता को अपनाते हुए हम अपनी प्राचीन कलाओं को तो विकृत नहीं कर रहे हैं? हर बार सरकार ही इसके संरक्षण के बारे में सोचे, यह जरूरी तो नहीं? 

क्या हम किन्नौर वासियों का इसके प्रति कोई दायित्व नहीं बनता? 


प्रत्येक जनजातीय क्षेत्र अपनी परम्परागत संस्कृति को संजोये रखना चाहता है, और दूसरी ओर हम किन्नौर वासी खुद ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को मिटाने पर तुले हैं। इस कला के संरक्षण में उड़ान समाज सेवा किन्नौर द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया जा रहा है, ताकि इस पुरानी परम्परा को बचाए रख सकें। उन लोगों को एक बार फिर से रोजगार का अधिक से अधिक अवसर दिया जा सके, जो समुदाय आज भी काफी हद तक इस पर आश्रित हैं।

समस्त किन्नौर वासियों की छोटी-सी सहयोगी कोशिश इस समुदाय से जुड़े लोगों में नई ऊर्जा भर सकती है, और उन्हें अपने इस काम को जारी रखने का हौसला भी दे सकती है। जिससे, परिणामस्वरूप, किन्नौर की आने वाली पीढ़ी  भी इन महत्वपूर्ण श्रम-कलाओं के मूल्य के  बारे में जान सके।

(लेखिका: सपना नेगी, किन्नौर, हिमाचल प्रदेश)



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