बिहार की 'सुशासन' सरकार और 'सवर्ण' समाज

Fixed Menu (yes/no)

बिहार की 'सुशासन' सरकार और 'सवर्ण' समाज

  • सुशासन सरकार ने रही सही कसर हरिजनों को दलित और महादलित में विभाजित करके उनके बीच भी एक गहरी खाई का निर्माण कर दिया
  • अफसोस! सुशासन राज में बिहार की स्थिति तो यहां तक पहुंच चुकी है कि अगड़ी जातियों को न्याय से भी वंचित कर दिया गया है, जो शोषण - अत्याचार और दमन की चरम पराकाष्ठा है

Bihar Governance and General Caste suppression, Hindi Content

लेखक: डॉ. मनोज कुमार (Dr. Manoj Kumar)
Published on 29 May 2021 (Last Update: 29 May 2021, 4:13 PM IST)

वर्ष 2005 में बिहार की सत्ता पर प्रतिष्ठित होते ही नीतीश सरकार ने कथित जंगलराज को एक सुनियोजित नीति के तहत संवैधानिक लूट में बदल दिया. अर्थात सवर्ण जातियों पर अत्याचार कर उसे दमन करने को नैतिक स्वरूप प्रदान करने हेतु नीतीश सरकार ने संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया और इस अत्याचार तथा दमन को ही सुशासन नाम रखा.

ध्यान रहे कि सत्ता में आने के तत्काल बाद नीतीश सरकार का पहला कदम बिहार राज्य पंचायती राज संशोधन अधिनियम 2006 पारित किया जाना था. पढ़ने और सुनने में तो मामूली लगता है, लेकिन यह ऐसा अमोघ अस्त्र है जो अतीत काल से सामाजिक संरचना के सर्वोच्च सोपान पर प्रतिष्ठित अगड़ी जातियों को न केवल मुखिया, सरपंच, जिला परिषद, काउंसलर तथा चेयरमैन और मेयर जैसे महत्वपूर्ण पदों से वंचित किया, बल्कि इन पदों पर जातिगत आरक्षण के बदौलत प्रतिष्ठित अयोग्य लोगों को हुकुम उदुली और जी हुजूरी करने को विवश भी किया, और दासता की श्रेणी में ला खड़ा किया.

नीतीश सरकार ने दमन का दूसरा महत्वपूर्ण कदम वर्ष 2009 में उठाया, जब बिहार राज्य न्यायपालिका संशोधन अधिनियम 2009 पारित करके न्यायपालिका में जातिगत आरक्षण व्यवस्था करके योग्य लोगों की एक बड़ी हिस्सेदारी को वंचित कर दिया. ध्यान रहे कि न्यायपालिका अभी तक जातिगत आरक्षण से मुक्त था, और इसमें स्वाभाविक तौर पर योग्य लोग अर्थात अगड़ी जातियों का ही वर्चस्व था. 

योग्य जातियों के दमन का तीसरा महत्वपूर्ण उपाय सरकारी नौकरियों में 35% महिला आरक्षण की व्यवस्था करके ढूंढ निकाला. साधारण लोगों को यह बात अटपटा सा लगेगा, लेकिन सत्य के तह में जाने पर ही नीतीश की वास्तविक मनसा से हम वाकिफ होंगे. बिहार सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों में तथा पंचायती राज व्यवस्था के तहत पारित किया गया. 35% और 50% महिला आरक्षण व्यवस्था तभी न्याय संगत होता, यदि यह आरक्षण जातिगत न होकर सार्वजनिक होता, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अगड़ी जातियों को महत्वपूर्ण पदों से वंचित करने में नीतीश सरकार कितनी उतावली है कि महिला आरक्षण में कोटा के भीतर कोटा प्रणाली लागू करके महिलाओं के बीच में फूट डालने से तनिक भी संकोच नहीं किया. नारी का अर्थ अबला होता है, चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो? 


सुशासन सरकार ने रही सही कसर हरिजनों को दलित और महादलित में विभाजित करके उनके बीच भी एक गहरी खाई का निर्माण कर दिया. उनका विकास करना तो कोसों दूर की बात रही, उनके विकास के नाम पर अंधाधुंध पैसों की लूट सरकार और नौकरशाही ने की. यहां एक उदाहरण देना ही काफी होगा कि अरबों रुपए के ट्रांजिस्टर और रेडियो खरीदे गए, और दलितों एवं महा दलितों के बीच वितरित किया गया. यह जगजाहिर है कि दलित एवं महादलित इन रेडियो ट्रांजिस्टरों से कोई खास लाभ नहीं उठा पाए, और कुछ ही दिनों में यह रेडियो उनके घर में कूड़ा का रूप धारण कर लिया. ध्यान रहे यह सारे सरकारी राजस्व और आय का अधिकांश हिस्सा सरकार अगड़ी जातियों से ही वसूल करती है, लेकिन उसका नाम मात्र का लाभ भी इनको नहीं मिल पा रहा है, बल्कि इन पैसों को ओछी राजनीति में बर्बाद किया जा रहा है. इस प्रकार स्पष्ट है कि इनके पैसे भी इनके पॉकेट से निकाले जा रहे हैं.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नीतीश सरकार ने सुशासन के नाम पर एक सुनियोजित नीति के तहत न केवल अगड़ी जातियों को बर्बादी के कगार पर खड़ा किया, और उसे दासता की बेड़ियों में जकड़ दिया, बल्कि निम्न शिक्षण संस्थानों में योग्यता के स्थान पर डिग्री को महत्व देकर और उच्च शिक्षण संस्थानों के पदों को खाली रखकर प्रबुद्धता को कोटर में बंद कर दिया और बिहार को 100 वर्षों तक पीछे धकेल दिया. 

याद करें, सुशासन सरकार ने स्थिति तो यहां तक बदतर बना दिया था कि अगड़ी जातियों को देश से भगाने का भी प्रयत्न किया था. जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री के पद पर रहने के बावजूद यह बयान दिया था की सवर्ण जाति के लोग आर्य हैं और आर्य भारत के मूलनिवासी नहीं थे, बल्कि वे विदेशों से आकर भारत में बसे थे. 

दोस्तों, यह कोई मामूली सी बात नहीं है, बल्कि अगड़ी जातियों के विरुद्ध अन्य जातियों को भड़का कर एक बड़े पैमाने पर हिंसा किए जाने की साजिश थी, लेकिन संयोगवश दूसरी जाति के लोग भी उस समय तक प्रबुद्ध हो चले थे, और सुशासन सरकार की वास्तविक इरादे को भापकर उसके झांसे में नहीं आए. नहीं तो इसमें दो राय नहीं कि बिहार में अगड़ी जातियों का वही हाल होता जो 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों का हुआ था. 
दोस्तों, मांझी तो एक बहाना था, लेकिन आपसे छिपा नहीं है कि उनसे यह बयान किसने दिलवाया था?

अफसोस! सुशासन राज में बिहार की स्थिति तो यहां तक पहुंच चुकी है कि अगड़ी जातियों को न्याय से भी वंचित कर दिया गया है, जो शोषण - अत्याचार और दमन की चरम पराकाष्ठा है. 

सेनारी नरसंहार जैसी घटना जिसमें 34 निर्दोष लोगों की हत्या होती है, और एक व्यक्ति भी दोषी नहीं पाया जाए. निचली अदालत द्वारा फांसी और उम्र कैद की सजा दिए जाने के बावजूद पटना उच्च न्यायालय द्वारा निश्चित साक्ष्य के अभाव का बहाना बनाकर सभी हत्यारों को रिहा किया जाना, बिहार ही नहीं, बल्कि विश्व के पैमाने पर न्याय के इतिहास में काला धब्बा है, और इस तिथि को मैं काला दिवस के रूप में मनाए जाने का अपील करता हूं, ताकि उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 
गौरतलब है कि जहानाबाद जिला न्यायालय द्वारा 10 हत्यारों को फांसी की सजा तथा तीन हत्यारों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन पटना उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें बाइज्जत बरी किया जाना उन 34 किसानों के प्रति अन्याय की चरम पराकाष्ठा है. यह फैसला न केवल सुशासन की पोल खोलता है, बल्कि अपराधी- पुलिस- सरकार और न्यायालय की मिलीभगत भी उजागर करता है.


दोस्तों, जहां न्याय देने में 22 सालों का समय लगता है, वहीं दूसरी ओर सभी हत्यारों को बाइज्जत रिहा किया जाता है. ऐसा उदाहरण ब्रिटिश काल में भी देखने को नहीं मिलता है. इतना बड़ा नरसंहार और इतने अन्याय पूर्ण फैसला होने के बावजूद केवल प्रिंट मीडिया ने प्रकाशित किया है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लगभग चुप है. यदि ऐसी बातें अल्पसंख्यक या दलित और महादलित समाज के प्रति होती तो उनके समाज के लोगों के साथ साथ खुद सवर्ण समाज के लोग भी हाय तौबा मचाने लगते, और प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसे मुख्य समाचार बनाती, लेकिन यह घटना ऐसी प्रकाशित की गई है, मानो इसका कोई महत्व ही नहीं है. 
आखिर मीडिया भी तो सुशासन सरकार द्वारा प्रायोजित और संचालित है. 

दोस्तों, मैं अतीत की गहराई में तो जाना नहीं चाहता, लेकिन यहाँ कुछ बातों को उजागर करना आवश्यक है. वर्ष 2012 में मेरी नियुक्ति बिहार सरकार मंत्रिमंडल सचिवालय द्वारा सीनियर रिसर्च असिस्टेंट के पद पर हुई थी, और मुझे बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह सर के संबंध में दो खंडों में "आधुनिक बिहार के निर्माता डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह" शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित किए जाने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था. इन पुस्तकों के लेखन के दौरान मुझे बिहार की संस्कृति- अतीत और वर्तमान के गहन अध्ययन का अवसर मुझे मिला. 


बिहार में अगड़ी जातियों के प्रति ईर्ष्या और पूर्वाग्रह की झलक उस समय से मिलती है, जब भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत पहली मर्तबा 1923 में भारतीय परिषद के सदस्य के रूप में खड़े होने का अवसर भारतीय को अंग्रेजों ने दिया था. 
चुनाव में बिहार में 4 सीटें मिली थी जिसमें दरभंगा महाराज, डॉ राजेंद्र प्रसाद के अग्रज भाई महेंद्र प्रसाद, अनुग्रह बाबू आदि चुनाव जीतने में सफल हुए थे.
अनुग्रह बाबू और श्री बाबू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद के सानिध्य में कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की थी और उन्हीं के मार्गदर्शन में इंडियन काउंसिल का चुनाव भी लड़ा था. उसी समय से इनके आपसी संबंध जीवन पर्यंत मधुर बने रहे. पहली मर्तबा फूट डाले जाने का स्पष्ट उदाहरण इसी समय मिलता है, जब श्री बाबू इंडियन काउंसिल का चुनाव हार गए और अनुग्रह बाबू चुनाव जीत गए. दोनों के बीच मतभेद पैदा करने का सुनियोजित प्रयास किया गया था, लेकिन इनकी बुद्धिमता ने संबंधों में दरार नहीं आने दिया. 

वर्ष 1937 में बिहार में पहली मर्तबा विधानसभा का चुनाव हुआ, और कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी हुई, तथा श्री कृष्ण सिंह मुख्यमंत्री और अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री बने. उसके बाद इन दोनों की जोड़ी जीवन पर्यंत बनी रही, और दोनों बिहार की सत्ता के शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित रहे, लेकिन वर्ष 1957 में अनुग्रह बाबू तथा जनवरी 1961 में श्री बाबू और 1964 में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के निधन होने से कुत्सित मानसिकता वाले लोगों को अपनी मनसा पूरी करने का अवसर प्राप्त हो गया.


जहां श्री बाबू और अनुग्रह बाबू और राजेंद्र प्रसाद के वंशजों के बीच उन्होंने न केवल फुट का बीजारोपण किया,  बल्कि एक- एक कर राजनीति के सभी पदों से वंचित करने का सुनियोजित प्रयास भी किया गया. मुख्य रूप से यह अवसर उन्हें तब मिला, जब 1990 में जनता दल की सरकार के रूप में लालू प्रसाद यादव बिहार की सत्ता पर प्रतिष्ठित हुए. अब ऊंची जातियों के प्रति पूर्वाग्रह और ईर्ष्या को मूर्त रूप दिया जाने लगा, और नरसंहार के दौर की शुरुआत हुई. कालांतर में लालू जी के ही सहायक नीतीश कुमार अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु उन से अलग होकर एक समता पार्टी का गठन किया, और मुख्य रूप से भाजपा के सहयोग से 2005 में बिहार की सत्ता पर काबिज हुआ.
‌स्वभाविक है कि नीतीश कुमार भी कोई दूसरा नहीं था, बल्कि लालू जी का ही सहपाठी और उन्हीं की मानसिकता का व्यक्ति था. केवल इसने जंगलराज के स्थान पर सुशासन का नारा दिया और संविधान और कानून का सहारा लेकर अगड़ी जातियों की जड़ काटना शुरू कर दिया. लालू की सरकार मे तो केवल अगड़ी जाति के कुछ लोग ही विलुप्त हुए, लेकिन सुशासन की सरकार ने इन्हें पूरी तरह पंगु बना दिया.
लेकिन दुख के साथ मुझे खुशी इस बात की है कि बिहार की जनता अब जाग चुकी है, और इस आतताई सरकार के विरुद्ध उठ खड़ी हुई है, और इसे भी न केवल पंगु बनाया, बल्कि स्वामी से आशीर्वादीलाल बना दिया. आवश्यकता है डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, श्री बाबू और अनुग्रह बाबू के सपनों को साकार कर एक नया बिहार बनाने की.

(लेखक :डॉ. मनोज कुमार, इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय पटना)



अस्वीकरण (Disclaimer): लेखों / विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी है. Article Pedia अपनी ओर से बेस्ट एडिटोरियल गाइडलाइन्स का पालन करता है. इसके बेहतरी के लिए आपके सुझावों का स्वागत है. हमें 99900 89080 पर अपने सुझाव व्हाट्सअप कर सकते हैं.
क्या आपको यह लेख पसंद आया ? अगर हां ! तो ऐसे ही यूनिक कंटेंट अपनी वेबसाइट / ऐप या दूसरे प्लेटफॉर्म हेतु तैयार करने के लिए हमसे संपर्क करें !


Article Pedia App - #KaamKaContent

** See, which Industries we are covering for Premium Content Solutions!

Web Title: Bihar Governance and General Caste suppression, Hindi Content at Article Pedia, Premium Unique Content Writing on Article Pedia




Post a Comment

0 Comments