भारतीय पौराणिक इतिहास में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता सुप्रसिद्ध है.
प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में उन्होंने एक-दूजे का साथ निभाया था. महाभारत के धर्म-युद्ध में इन दोनों की जुगलबंदी पौराणिक इतिहास में अद्वितीय है. एक-दूजे के लिए इन दोनों ने लांछन लेने में भी कोताही नहीं की थी.
पर क्या सच में इन अभिन्न मित्रों के बीच कोई युद्ध हुआ था, वह भी एक-दूसरे को मार देने वाला युद्ध?
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच इस युद्ध की कथा महर्षि गालव से सम्बंधित है. गालव जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक माने जाते हैं. यूं यह महर्षि विश्वामित्र के शिष्य के रूप में जाने जाते हैं.
बात त्रेतायुग की है. उस वक्त यमराज ने महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के रूप में उनके आश्रम पहुंचकर भोजन की मांग की. महर्षि विश्वामित्र ने पूरी तन्मयता से भोजन तैयार किया और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ का रूप धरे यमराज के पास भोजन लेकर आये. हालाँकि, तब तक देरी के कारण यमराज जा चुके थे.
घर पर आये मेहमान की सेवा न करने के कारण महर्षि विश्वामित्र को बड़ी ग्लानि हुई और वह भोजन अपने हाथों से माथे पर लगाकर उसी स्थान पर मूर्तिमान हो गए.
इसी अवस्था में उन्होंने कठोर तप किया. मात्र वायु का सेवन करते हुए 100 वर्ष तक महर्षि विश्वामित्र एक ही अवस्था में खड़े रह गए.
उनके तपस्या करने के दौरान विश्वामित्र के प्रिय शिष्य गालव उनकी सेवा में लगे रहे. विश्वामित्र की तपस्या से प्रसन्न होकर 100 साल बाद यमराज फिर से मुनि के आश्रम आए और उन्होंने भोजन ग्रहण किया.
100 वर्ष तक पूरे मन-जतन से सेवा करने के कारण महर्षि विश्वामित्र अत्यंत प्रसन्न एवं संतुष्ट थे.
गालव ऋषि का प्रसंग द्वापर-युग में भी एक जगह आता है, जहाँ वह गरूड़ के साथ तपस्वी शाण्डिली से मिलने जाते हैं.
आप यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि अर्जुन और श्रीकृष्ण जैसे मित्रों के बीच जानलेवा झगड़े की जड़ में 'पीक थूकने' का प्रकरण विद्यमान था!
यह प्रसंग तब का है, जब एक बार महर्षि गालव सुबह-सुबह सूर्य को अर्घ्य दे रहे थे. अर्घ्य देने हेतु ऋषि ने अपनी अंजलि में जल भरा ही था, ठीक तभी आसमान में उड़ते हुए चित्रसेन गंधर्व द्वारा थूकी हुई पीक उसमें गिर गई.
ऐसे में गालव ऋषि को प्रचंड क्रोध आया. वे चित्रसेन को शाप देने ही वाले थे, पर तभी उन्हें अपने तपोबल के नष्ट होने का ध्यान हो आया और उन्हें रूकना पड़ा. हालाँकि, वह मन से क्रोध त्याग न सके!
ऐसे में गालव ऋषि ने लीलाधर श्रीकृष्ण से गुहार लगायी.
योगीराज श्रीकृष्ण ने गालव मुनि की गुहार पर तत्काल ही प्रतिज्ञा ले ली कि "वह चौबीस घण्टे के भीतर चित्रसेन का वध कर देंगे."
इतना ही नहीं, ऋषि गालव को पूर्ण रूप से संतुष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी माता देवकी तथा खुद महर्षि के चरणों की भी सौगंध ले ली.
अब तो चित्रसेन की मृत्यु लगभग तय हो गयी!
यहाँ आते हैं नारद मुनि!
नारद मुनि के माध्यम से चित्रसेन को तमाम बातें पता चली तो वह विक्षिप्त की भांति यहाँ-वहां दौड़ने लगा. ब्रह्मलोक, इंद्र-यम-वरुण सहित शिवधाम इत्यादि तमाम लोकों में उसे एक क्षण को भी शरण नहीं मिली.
बेचारा चित्रसेन अपनी बिलखती पत्नियों के साथ मुनिवर नारद की ही शरण में चला आया.
देवर्षि नारद तो देवर्षि नारद ठहरे!
गन्धर्वराज चित्रसेन को देवर्षि ने यमुना तट पर समझा-बुझाकर भेजा और खुद श्रीकृष्ण की बहन व अर्जुन की पत्नी सुभद्रा के पास पहुँच गए.
योजना तैयार थी. नारद मुनि ने उसी अनुरूप सुभद्रा को बताया कि “सुभद्रे! आज की तिथि में आधी रात को यमुना स्नान करने तथा शरणागत की रक्षा करने से अक्षय पुण्य मिलेगा.”
मासूम नारी मन जो ठहरा!
नारद मुनि की बातों में उलझकर देवी सुभद्रा अपनी सहेलियों के साथ यमुना-स्नान को जा पहुंची.
वहां पहुँचते ही उन्हें रोने की दुखभरी आवाज़ सुनाई पड़ी.
नारद मुनि के बतलाये अनुसार अक्षय पुण्य प्राप्त करने के लालच में सुभद्रा ने रोते हुए चित्रसेन से पूछा कि आखिर तुम क्यों रो रहे हो, किन्तु चित्रसेन नारद मुनि की योजनानुसार नहीं बतलाया.
नारद मुनि ने चित्रसेन को पहले ही बता रखा था कि जब तक अर्जुन पत्नी सुभद्रा चित्रसेन की रक्षा करने का प्रण न ले लें, तब तक उन्हें कुछ बतलाना नहीं है.
अंत में सुभद्रा प्रतिज्ञाबद्ध हुईं तब चित्रसेन गन्धर्व ने उन्हें सारी बातें स्पष्ट कीं.
सुभद्रा असमंजस में पड़ गईं, किन्तु अर्जुन ने सुभद्रा को सांत्वना दी और कहा कि सुभद्रा की प्रतिज्ञा अवश्य ही पूरी होगी.
वैसे चित्रसेन अर्जुन का मित्र भी था.
नारद जी वैसे भी झगड़ा कराने वाले मुनि के रूप में प्रसिद्ध हैं एवं इस कथा में भी उन्होंने यही किया.
एक बार फिर नारद मुनि द्वारका पहुंचे और श्रीकृष्ण को सारी बताई.
फिर श्रीकृष्ण भी मजबूर हुए और नारद मुनि को एक बार फिर अर्जुन को समझाने भेजा.
नारद मुनि इधर-उधर नमक-मिर्च लगाकर बातें पहुंचाते रहे और युद्ध की ठहर ही गयी!
दोनों ओर से सेना-सहित भयंकर युद्ध होने लगा, पर कोई जीत नहीं पा रहा था. पर योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन पर सुदर्शन चक्र छोड़ने के बाद अर्जुन ने भी सबसे खतरनाक अस्त्र पाशुपतास्त्र छोड़ दिया. प्रलय के लक्षण दिखने लगे और ऐसे में अर्जुन ने भगवान शंकर को स्मरण किया.
भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने दोनों शस्त्रों को मनाया.
तत्पश्चात भोले-भंडारी भक्तवत्सल श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और कहने लगे कि 'हे प्रभो! आपने हमेशा ही भक्तों की सुनी है, उनकी लाज रखी है. उनकी खातिर अपनी प्रतिज्ञाओं की असंख्य बार तिलांजलि भी दी है.'
ऐसी वाणी सुनकर श्रीकृष्ण पिघल गए और उन्होंने अर्जुन को गले लगा लिया.
...मगर गालव ऋषि का 'क्रोध' अभी समाप्त नहीं हुआ था!
प्रभु को युद्ध से विरत होते देखकर गालव ऋषि बोले कि 'यह तो उनके साथ धोखा हो गया'!
सरल स्वभाव के गालव ऋषि का क्रोध और भी बढ़ गया और उन्होंने कहा कि “अपनी शक्ति प्रकट करके वह कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा समेत चित्रसेन को जला डालेंगे.”
थूक के अपमान से परेशान गालव ऋषि ने ज्यों ही जल हाथ में लिया, तभी सुभद्रा बोल उठीं कि, "अगर मैं कृष्ण की सच्ची भक्त होऊं और अगर पतिव्रता स्त्री होऊं, तो यह जल ऋषि के हाथ से पृथ्वी पर गिरने ही न पाए."
ऐसा हुआ भी... आखिर पतिव्रता स्त्री के सामने यमराज भी नहीं जीत पाए हैं.
लज्जा के कारण ऋषि का क्रोध भी शांत हो गया.
पर अर्जुन-श्रीकृष्ण के युद्ध की कथा हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गयी.
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