संस्कारों का 'ड्रेसकोड'

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संस्कारों का 'ड्रेसकोड'

Sanskaro ka Dress code, Sacrament Hindi Satire by Archana Chaturvedi

लेखिका: अर्चना चतुर्वेदी (Writer Archana Chaturvedi)
Published on 2 Jul 2021 (Update: 2 Jul 2021, 5:17 PM IST)

चाँद से लेकर मंगल तक पहुंचने वाले देश के लोगों की सोच अभी तक कपड़ों के इर्दगिर्द घूमती है. घरों और चौपाल से लेकर नेताजी के भाषण तक चहुँओर पहनावे की बात होती है. इन्सान की पहचान, इंसान की इज्जत मान सब सिर्फ उसके पहनावे से ही तय होता है. इस देश के लोग तो इतने त्रिकालदर्शी हैं कि पहनावा देखकर बता देते हैं कि कौन संस्कारी कौन कु संस्कारी. 
कमाल की बात है ना... यहाँ इन्सान से ज्यादा कपड़ों की कद्र है, और कहते हैं इंसानियत नहीं बची. जींस पहनने से संस्कृति को खतरा हो जाता है, और कपडे देखकर संस्कार भी भाग जाते हैं ... 

इनका वश चले तो संस्कारों का ड्रेसकोड बना दें. 

कल्पना करके देखिये जिस तरह कई नौकरियों में ड्रेसकोड होता है, कई पार्टियों में ड्रेसकोड होता है, उसी तरह संस्कारों का भी ड्रेस कोड होता तो क्या होता? इसके लिए सबसे पहले संसद में बहसें होती कि कौन सा ड्रेसकोड उचित होगा, जिसे पहन संस्कार आयेंगे, और भारतीय संस्कृति की रक्षा होगी, फिर एक ड्रेसकोड कमेटी का गठन होता जो इस बात की खोज करती कि महिलाएं या पुरुष कौन सी ड्रेस पहनेंगे, जिनसे संस्कार ज्यादा अच्छे आयेंगे. 

दूसरी तरफ नेताजी अपने भाषणों में ड्रेस से संस्कार तक की बातें करते... उनकी बातों से संस्कार भी कन्फ्यूज हो जाता कि क्या उसकी जरुरत सिर्फ नारी को है नर को नहीं... संस्कार बेचारा हैरान परेशान सा घूमता, क्योंकि उसे हर तरफ... हर कोई सिर्फ नारी के कपड़ों की बात करता नजर आता.

दूसरी तरफ ड्रेसकोड निर्धारण की लड़ाई जारी रहती... अब जिस देश में आजादी के इतने सालों तक अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं, वहां ड्रेसकोड निर्धारित करने में ही वर्षों निकल जाते, फाइल इधर से उधर घूमती. जिस तरह अपने अपने राज्यों की मांग हो रही है, उसी तरह अपने - अपने ड्रेस कोड की मांग होती. कोई साड़ी और मर्दानी धोती को सही ठहराया जाता, तो कही पेंट कमीज और जींस को, कही सलवार सूट और पठानी सूट को...

हर राज्य अपना अलग अलग ड्रेस कोड रखने की मांग करता, और उन्हें पूरा कराने के लिए धरने पर बैठता. उसी ड्रेस में जुलूस निकलते जिसे वे संस्कारों का ड्रेसकोड बनाना चाहते.


कुसंस्कार भी काम के बोझ तले दबा होगा. आधी आबादी के ड्रेस कोड की वजह से उसी को तो जाना पड़ेगा,  संस्कार तो उनके पहनावे की वजह से दूर भाग जायेगा...

और बेचारे संस्कार जी इन सब बातों से हैरान परेशान हो खुद को बेरोजगार टाइप महसूस करते और अपने भाई  कुसंस्कार से कहते “जा भाई तू ही जा अपन तो उसी के पास जायेंगे, जो ड्रेस कोड के हिसाब से चलेगी...
क्यों भाई चलेगी मतलब, उन कच्छे और गमछे वालों से कोई दिक्कत नहीं है?

अरे भाई उन्हें संस्कारों की जरुरत ही कब है  कौन पूछता है उनके संस्कार?


(लेखिका अर्चना चतुर्वेदी देश की जानी मानी व्यंग्यकार हैं. कई किताबों की रचना के साथ-साथ देश के प्रतिष्ठित न्यूज पेपर्स / मैगजींस में आप नियमित छपती रहती हैं)


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