Published on 1 Jun 2021 (Update: 1 Jun 2021, 4:09 PM IST)
एक व्यापारी दूर देश व्यापार करने जाता था। एक बार एक जंगल से गुजरा तो एक स्थान पर बहुत से तोते देखे। प्रयास करके एक तोता पकड़ लिया। रास्ते भर उससे प्यार और संवाद करता गया।
इसी बीच दोनों एक दूसरे को समझने लगे। लेकिन जब वह व्यापारी अपने सेठ के पास पहुंचा, तो सेठ उस तोते से बहुत प्रभावित हुआ। उसने तोता मांग लिया।
व्यापारी ‘न’ नहीं कर सका!
सेठ ने उसके मनोभाव देख उसे विश्वास दिलाया कि वह तोते को बहुत शाही ढ़ंग से रखेगा। सोने का पिंजरा, चांदी की कटोरी, मक्खन, मेवा, मिष्ठान, ताजे फल आदि आदि। व्यापारी लौट आया।
कुछ समय बाद जब वह व्यापारी फिर वहां गया तो देखा कि तोता शाही जीवन जी रहा है तो उसे संतोष हुआ। लेकिन एकांत पाकर तोते ने उस व्यापारी को कहा, ‘जिस स्थान से मुझे लाये थे, वापसी में जब वहां से गुजरो तो कह देना- ‘पक्षियों! मैं फलां अवसर पर एक तोते को यहां से ले गया था, जो अब दूर देश में सेठ के घर सोने के पिंजरे में रहते हुए चांदी की कटोरी में मक्खन, मेवा, मिष्ठान, ताजे फल पाता है।
लेकिन न जाने क्यों बेचारा उदास है, दुःखी है।’
व्यापारी ने वापसी में वैसा ही किया। लेकिन आश्चर्य कि उसकी बात पूरी होते ही पेड़ पर बैठे पक्षियों में से एक तोता धड़ाम से नीचे गिरा, और मर गया।
व्यापारी ने यह दृश्य अपनी आंखों से देखा था इसलिए उसने मन ही मन अनुमान लगाया कि हो न हो... इस तोते और उस तोते में जरूर कोई घनिष्ठ आत्मिक संबंध है। यह तोता उसके दुःख के समाचार को सहन तक नहीं कर सका और.......!
खैर कुछ समय बाद वह व्यापारी फिर से उसी नगरी में गया, जहां सेठ के घर वह तोता रहता था।
तोते से मुलाकात हुई तो उसने अपने संदेश के बारे में पूछा। इस पर व्यापारी ने पूरा वृतांत बताया।
लेकिन फिर आश्चर्य कि ‘उस’ तोते के मरने का समाचार सुनते ही ‘यह’ तोता भी पिंजरे में लुढ़क गया।
सेठ और उस व्यापारी इस निश्कर्ष पर पहुंचे कि ‘यह’ तोता और ‘वह’ तोता जरूर करीबी थे। इसके दुःख के समाचार ने उसे इतना विचलित कर दिया कि बात प्राणोत्सर्ग तक जा पहुंची।
और इधर भी वहीं हुआ!
उसके न रहने के समाचार ने इसे इतना आघात पहुंचाया कि प्राणान्त हो गया। अतः उन्होंने उसे मृत तोते को पिंजरे से निकाल कुछ दूरी पर रख दिया।
वे दोनों अभी इसी विषय पर चर्चा ही कर रहे थे कि मृत दिखने वाला तोता ‘फुर्र’ से उड़ गया!
ओह! तो इसका मतलब यह मरा नहीं था। तब तो वह भी नहीं मरा होगा। लेकिन इन दोनों के संबंध जरूर थे।
यह शिष्य था, जो मुक्ति का मार्ग जानना चाहता था, लेकिन गुरु तक न पहुंचने की विवशता थी।
फिर भी उसने व्यापारी को माध्यम बनाया, कूट भाषा में संदेश भेजा, तो गुणी - ज्ञानी गुरु ने उस संदेश को समझकर उसी कूट भाषा में उत्तर दिया- मुक्ति चाहते हो तो मृतवत हो जाओ!
चेला समझ गया और मुक्त हो गया!
लेकिन हम तो सीधी स्पष्ट बात को समझकर भी नहीं समझते। जीते जी मृतवत होना तो दूर, हम तो मरने के बाद भी जीना चाहते हैं।
इसीलिए तो गुरु हम में से अनेकों के लिए शोभा की वस्तु हैं, या केवल फायदे का सौदा।
सच तो यह है कि गुरु एक व्यक्ति नहीं, अनंत गुण है। जीवन में हमें जहां से भी गुण ज्ञान मिले उसका गुरुत्व स्वीकार करना चाहिए।
हम सबको उस परमपिता परब्रह्म से प्रार्थना करनी चाहिए कि सीखने की प्रवृत्ति अंतिम क्षण तक बनी रहे !!
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