- सुना है जबसे इंसान जानवरों की तरह हो लिए हैं, तबसे शेर ने ‘वीआरएस’ ले लिया है
- उधर खरगोश भी जोश के साथ अपनी चिरपरिचित शैली में चुनाव प्रचार को निकल पड़ा. लेकिन आदतानुसार उसका शरीर थोड़ी देर में ही एक ‘कमर्शियल ब्रेक’ लेकर ‘रिलैक्स मोड’ में आ लगा. लेकिन...
लेखक: अलंकार रस्तोगी (Satirist Alankar Rastogi)
Published on 9 Jun 2021 (Update: 9 Jun 2021, 6:06 PM IST)
कछुए और खरगोश की ‘रेस’ हमारे लिए ही नहीं, बल्कि इन दोनों की आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ‘आलटाइम हिट’ ‘मोरल स्टोरी’ बनी रही. कछुए के वंशजों को अपने उसी ‘सुपर से भी ऊपर’ टाइप्ड पूर्वज को ‘फॉलो’ करने को कहा जाता, और खरगोश की नस्लों को अपने ‘ग्रैंडपा’ की कुम्भकर्णी हरकत से सबक लेकर ‘एक्टिव मोड’ में रहने की नसीहत दी जाती. एक बार इस कलयुगी दौर के कछुआ और खरगोश भी अपने पूर्वजों की तरह आमने-सामने हुए.
इस बार कछुआ ‘डर के आगे जीत है’ वाले स्लोगन के साथ कुछ ज्यादा जोश में था. उसने खरगोश को ललकारते हुए कहा, ‘तुम किस मुंह से मेरे सामने खड़े हो. क्या तुम्हें अपने उस आलसी दादू का हश्र नहीं मालूम है?
खरगोश ने अपने पूर्वज और अपना दोनों के अपमान के खून की घूट के ‘डबल डोज़’ को पीते हुए कहा, ‘पता है बिलकुल पता है! लेकिन अब ज़माना बदल गया है. ना कोई जीत स्थायी होती है और ना ही कोई हार आखिरी’.
खरगोश की ‘चैलेंजिंग’ बाते सुन कछुए को अपनी सत्ता हिलती नज़र आई. वह खरगोश को ललकारते हुए बोला, ‘देखो खरगोश भाई! तुम्हे पता होना चाहिए कि ‘चैलेन्ज’ हमारी कौम बर्दाश्त नहीं कर पाती है. अगर तुम्हें भी अपनी हालत अपने पूर्वज की तरह करनी है तो ‘स्वैग’ से स्वागत है तुम्हारा. बताओ इस बार ‘रेस –टू’ करना चाहोगे?’
मौका देख चौका लगाते हुए खरगोश बोला, ‘देखो कछुए मियां!
इस बार जंगल में नए राजा का चुनाव होने जा रहा है. सुना है जबसे इंसान जानवरों की तरह हो लिए हैं, तबसे शेर ने ‘वीआरएस’ ले लिया है. उसे जंगल का राजा बनने में अब कोई ‘चार्म’ नहीं रह गया है. ऐसा करते हैं, हम दोनों जंगल के राजा का चुनाव लड़ते हैं. अगर तुम वाकई इतने काबिल हो, तो मुझे हराकर इस जंगल का राजा बनकर दिखाओ.’ कछुआ बिलकुल अपने पूर्वज की तरह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त था. उसने तुरंत ‘हाँ’ कर दी.
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कछुआ अपने पूर्वज के परिश्रमी पदचिन्हों पर चलता हुआ चुनाव की रणनीति के तहत जंगल के हर जानवर से व्यक्तिगत तौर पर मुलाकात करने लगा. वन में रहने वाले हर जन के साथ लगातार संपर्क करता रहा. सुबह से लेकर शाम तक कछुआ पागलों की तरह बिना रुके चुनाव अभियान में जुटा रहा.
उधर खरगोश भी जोश के साथ अपनी चिरपरिचित शैली में चुनाव प्रचार को निकल पड़ा. लेकिन आदतानुसार उसका शरीर थोड़ी देर में ही एक ‘कमर्शियल ब्रेक’ लेकर ‘रिलैक्स मोड’ में आ लगा. लेकिन इस बार उसने वह गलती नहीं दोहराई. उसने उसी ऐतिहासिक पेड़ के नीचे अपना चुनाव कार्यालय खोल लिया जिसके नीचे उसका पूर्वज सो गया था.
उसने वहाँ कुछ स्थानीय प्रभावशाली जानवरों को आमंत्रित कर उन्हें ‘शाल’ और बाद में ‘माल’ देकर सम्मानित कर दिया. सभा में आये हुए लोगों में ‘सोमरस’ का वितरण करवा दिया. उसके बाद से उसे स्वयं कहीं नहीं जाना पड़ा. पूरा जंगल उसे पसंद करने लगा. उधर कछुआ दिन-रात रुखी-सूखी पद यात्रा कर एक चौथाई जंगल ही ‘कवर’ कर पाया था. चुनाव हुआ और खरगोश अपनी लोकप्रियता के कारण भारी बहुमत से जीत गया.
शायद कछुआ भूल गया था प्रजातंत्र की दौड़ में ‘स्लो एंड स्टेडी’ नहीं ‘फ़ास्ट एंड फ्यूरियस’ जीता करते हैं .
(लेखक अलंकार रस्तोगी जाने माने व्यंग्यकार हैं, एवं अध्यापन कार्य से जुड़े हुए हैं)
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