महिला उत्पीड़न: सभ्य समाज का यथार्थ

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महिला उत्पीड़न: सभ्य समाज का यथार्थ

  • नारी के प्रति होने वाले शोषण को रोकने के लिए प्रशासन द्वारा कई प्रकार के कानून बनाने के बाद भी यह थमने की बजाय आसमान ही छू रही है
  • कोरोना जैसी महामारी के समय में जब पूरे देश में हाहाकार मचा था, ऐसे में भी नारी उत्पीड़न के मामले सामने आये

Oppression of Women: Reality of Civilized Society, Hindi Content

लेखिका: सपना नेगी (Writer Sapna Negi)
Published on 11 Jun 2021 (Update: 11 Jun 2021, 3:55 PM IST)

कहने भर को तो आज हम सब उस सभ्य समाज में रहते हैं, जहाँ नारी को पुरुषों के बराबर समझा जाता है। पर सोचने की बात है कि कितनी सच्चाई इस बात के पीछे छिपी है, क्योंकि अगर सच में ऐसा है तो फिर नारी के प्रति शोषण/ उत्पीड़न के आंकड़े कम होने की बजाय लगातार क्यों बढ़ते ही जा रहे हैं? 
आखिर क्यों आज नारी हर-जगह शोषण का शिकार हो रही है? 

वह न तो बाहर सुरक्षित है, और न ही अपने घर-परिवार में सुरक्षित है। ऐसे में मन में यही सवाल उठता है कि आज कोई भी रिश्ता ऐसा नहीं बचा, जहाँ वह खुद को सुरक्षित महसूस कर सके। आज पिता द्वारा अपनी ही बेटी के साथ यौन शोषण, या फिर भाई द्वारा अपनी ही बहन के साथ यौन शोषण के समाचार सुनने पर रूह तक काँप जाती है।  यह सोचकर कि पशु तक भी अपने परिवार के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हुए देखे गये हैं। 
दूसरी तरफ हम सभ्य कहने वाले मनुष्य अपने हवस में इतने नीचे गिर गए है कि सारे रिश्तों को तार-तार करने से भी नहीं झिझकते हैं। 

नारी के प्रति होने वाले शोषण को रोकने के लिए प्रशासन द्वारा कई प्रकार के कानून बनाने के बाद भी यह थमने की बजाय आसमान ही छू रही है। हर दिन न जाने कितनी ही महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, वेश्यावृति, दहेज़ उत्पीड़न की शिकार होती होंगी। इसकी गिनती करना मुश्किल है, क्योंकि बहुत सारे मामले तो कभी दर्ज ही नहीं होते। उससे पहले ही कभी घर-परिवार की लाज़ के नाम पर, तो कभी समाज क्या कहेगा, इस डर से दबा दिए जाते हैं।

पर कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिसे चाहकर भी दबाया नहीं जा सकता। जिससे कि सभ्य कहे जाने वाले मानव का ऐसा घिनौना चेहरा समाज के सामने आता है कि लोगों को अपने इंसान होने पर शर्मींदगी तक महसूस होने लगी है।


यह पूरे देश को ही हिला कर रख देती है, सोचने पर मजबूर कर देती है कि इसी सभ्य समाज में हैवानों की भी कमी नहीं। जो अपनी बर्बरता से मानवता को ही शर्मसार कर देती है, जो मानवता के नाम पर कलंक है। निर्भया कांड ऐसा ही उदाहरण है। जिसने यह साबित कर दिया कि यह हैवान अपनी दरिंदगी की सारी हदें  पार कर सकते हैं, इनके दिल में दया बची ही नहीं। 

सम्पूर्ण देशवासियों द्वारा इसका खुलकर विरोध किया गया, और इसमें मीडिया द्वारा भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गयी। उसके बाद हमारी सोयी हुई सरकार जागी और महिलाओं से सम्बन्धित कानूनों को और मजबूत किया गया। पर सभी सबूत होने के बावजूद भी अपराधियों को सजा देने में यहाँ भी कई वर्ष लग गये। अभी भी कई मामले ऐसे ही फाइलों में पड़े-पड़े गुमनामी की राह में हैं। गुड़िया केस, हाथरस केस और राजस्थान का कोटा केस इनमें से ही एक है, जिसके विरोध में शुरू में तो जनता और मीडिया द्वारा खुलकर इसका प्रदर्शन किया गया, पर उसके बाद सब धीमा पड़ गया। 

जनता भी सब भूल अपने-अपने कामों में लग गई तथा मीडिया वालों को भी कोई ओर केस मिल गया। 

कोरोना जैसी महामारी के समय में जब पूरे देश में हाहाकार मचा था, ऐसे में भी नारी उत्पीड़न के मामले सामने आये। 

इसने यह सिद्ध कर दिया कि चाहे बद से बदतर हालात क्यों न हो, ऐसे में भी यह हैवान अपना कुकर्म करने से पीछे नहीं हटेंगे। आज भी कई मामले फाइलों में ही बंद पड़े, समय के साथ कही दब चुके होंगे, और उन बेटियों के माँ-बाप आज भी कोर्ट के चक्कर काट रहे होंगे। इस उम्मीद में कि कभी न कभी उनकी बेटी को न्याय जरूर मिलेगा। पर पता नहीं, हमारे देश का कानून कब उन बेटियों को न्याय दिला पायेगा!

इसमें भी कोई शक नहीं है कि आज देश की बेटियाँ किसी भी काम में पुरुषों से पीछे नहीं है। आज वह पुरुषों का कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ नारी न पहुँच पायी हो, फिर वह चाहे राष्ट्रपति पद की बात हो, या लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में या फिर राज्यों में महिला मुख्यमंत्री पदों की। इतना होने के बाद भी आज भी पितृसत्ता द्वारा निर्मित रूढ़ियाँ हमारे समाज में विद्यमान है, जो नारी को, नर की अपेक्षा दोयम दर्जे का समझती है। 


वह दिखाने भर को तो अपने आप को बाहर से आधुनिक दिखाते हैं, पर आंतरिक रूप से आज भी वह परम्परागत रुढियों को ढो रहे हैं। 

भले ही हम वर्तमान में नारी को मिले अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें कर लें, पर सच्चाई तो यह है कि आज भी बड़ी संख्या में आधी-आबादी कही जाने वाली नारी की अपनी कोई निजी पहचान नहीं है। वह आज भी मुन्नी की माँ, श्याम की पत्नी, रमा की बहु इत्यादि नामों से ही पुकारी जा रही है।

जब तक वह अपनी अधिकारों के प्रति स्वयं जागरूक न हो, अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठायेगी, तब तक उसे इसी तरह दबाया जाता रहेगा। 

तभी तो वर्तमान समय में भी न जाने कितनी ही पढ़ी-लिखी बहु दहेज़ की आग में जला दी जाती हैं, या फिर अन्य स्थिति में उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर उसे वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है। जहाँ एक-बार दलदल में गिरने के बाद उठना नामुमकिन हो जाता है।  
  
प्रत्येक वर्ष 25 नवम्बर को विश्वभर में अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा एवं उन्मूलन दिवस (International Day for the Elimination of Violence against Women, 25 November) के रूप में मनाया जाता रहा है, ताकि महिलाओं पर होने वाले हिंसा को किस प्रकार रोका जा सके। इस पर ध्यान देकर उन पहलुओं को समझा जा सके जो इसके मूल आधार हैं। 
पर सोचें ज़रा, क्या केवल साल में एक दिन इस पर विचार-विमर्श करने से इसके दुष्प्रभाव को रोका जा सकता है?


अगर इसे जड़ से ही खत्म करना है, तो प्रशासन को और भी सख्त से सख्त कानून बनाना होगा। ऐसे मामलों पर तुरंत ही सख्त कार्रवाई भी होनी चाहिए, साथ ही बलात्कार, गैंगरेप करने वालों को कड़ी से कड़ी और तत्काल ऐसी सजा देना चाहिए, ज़रुरत हो तो फांसी पर भी लटका देना चाहिए। 
जिस दिन देश में यह नियम लागू हो जाएगा, उस दिन देश की बेटियाँ फिर से ख़ुद को महफूज़ महसूस करने लगेंगी। 

ऐसे अपराधियों के परिवार के सदस्यों को भी खुलकर आगे आने की जरूरत है और उनके साथ वह भी वैसा ही बर्ताव करें, जैसे एक अपराधी के साथ करना चाहिए। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस बेटी के साथ उनके बेटों ने ऐसा कुकर्म किया है, उनके जगह यदि उनकी बेटी होती, तो तब वह अपराधी को क्या सज़ा देते!
जिस दिन परिवार के सदस्य ही न्याय करने पर उतर जायेंगे, उस दिन नारी को सच्चे अर्थों में हिंसा/ उत्पीड़न जैसे शब्दों से मुक्ति मिल जाएँगी।

(लेखिका: सपना नेगी, किन्नौर, हिमाचल प्रदेश)



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