पर्यावरण चेतना के दो अग्रदूत

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पर्यावरण चेतना के दो अग्रदूत

  • सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आन्दोलन के प्रणेता और पर्यावरण को वैश्विक पहचान दिलाने वाले युग पुरुष थे
  • दूसरे आनंद धवाज़ नेगी जी ने भुरूस्थल विकास विभाग से डिप्टी कंटोलर के पद से इस्तीफा देकर इस थांगकर्मा प्रोजेक्ट को पूरा करने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया

Environmental Consciousness, Hindi Essay, Sundar Lal Bahuguna

लेखिका: सपना नेगी (Writer Sapna Negi)
Published on 5 Jun 2021 (Update: 5 Jun 2021, 4:09 PM IST)

वर्तमान समय में मानव विकास की अंधी दौड़ में इतना अंधा हो चुका है कि वह अपने और पर्यावरण के बीच के गहरे संबंधों तक को भुला चुका है। उसे आज केवल खुद से मतलब है, पर्यावरण में बदलाव आने के पीछे के कारणों को वह जानना तक नहीं चाहता कि आखिर किन कारणों की वजह से आज सम्पूर्ण देश को ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या से जूझना पड़ रहा है, जिसकी कल्पना शायद कभी किसी ने न की होगी कि एक दिन देश को इस समस्या से भी जूझना पड़ सकता है। 

क्यों हवा इतनी विषैली हो गई है कि देश की राजधानी में लोगों का खूले में साँस लेना तक दुश्वार हो जाता है। क्यों उन्हें इससे बचने के लिए कई बार मास्क तक का सहारा लेना पड़ता है? 
कोरोना काल में लॉकडाउन की वजह से पर्यावरण में सुधार देखने को जरुर मिला, जिसके कारण देश की राजधानी दिल्ली में गौरेया पक्षी जो कई सालों से लुप्त हो चुके थे वे फिर से देखे गए। परन्तु जैसे ही लॉकडाउन हटा कुछ समय बाद शहरों में फिर से वही भीष्म गर्मी, प्रदूषण देखा गया। 

कोरोना महामारी का कारण भी हमारे द्वारा ही पर्यावरण के प्रति लापरवाही है, जिसने अपना भयंकर रूप धारण कर हमें यह सन्देश देने की कोशिश की है कि यदि अब भी नहीं समझे हम, तो फिर सम्पूर्ण पृथ्वी को विनाश होने से कोई नहीं बचा सकता। इतना कुछ होने के बावजूद अब भी मनुष्य समझने को तैयार ही नहीं है कि जब तक प्रकृति की छत्रछाया मनुष्य पर बनी रहे, तब तक ही उसका जीवन है। इसके वजूद के बिना तो मनुष्य की जीवन लीला ही समाप्त हो जाए।

प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है, ताकि लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलायी जा सके। पर सोचने की बात यह है कि क्या हम मनुष्य इतने स्वार्थी हो गए हैं कि पर्यावरण के प्रति अपने कर्त्तव्य को ही भूल गए!
क्यों लोगों को पर्यावरण को स्वच्छ रखने और उसकी रक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए किसी विशेष दिन मनाने की जरूरत पड़ रही है? 

पर क्या आपको लगता है की इस तरह विशेष दिन मनाने से लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आ जाएगी? दिखाने के लिए तो उस दिन स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में प्रतियोगिताएं, परिचर्चा और गोष्ठियां तक कराई जाती हैं, ताकि विद्यार्थियों को पर्यावरण का महत्व समझाया जा सके। बाकी ओर दिन तो मानो इन संस्थानों का भी पर्यावरण से कोई लेना-देना नहीं। आम जनता द्वारा भी फेसबुक, इंस्ट्रग्राम, व्हाट्सप्प पर पर्यावरण से सम्बन्धित ऐसे-ऐसे पोस्ट शेयर की जाती है, जैसे उनसे बढकर तो कोई ओर प्रकति के हो ही नहीं सकता। यह सब एक दिन का दिखावा होता है, प्रकृति के प्रति अपना प्रेम दिखाने का। क्योंकि बाकी दिन तो उन्हें इससे कोई लेना-देना ही नहीं है। अगले साल दुबारा पर्यावरण दिवस आने पर ही इन्हें याद किया जाएगा, उससे पहले याद करने की कोई गुंजाइश ही नहीं।

लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि इसी समाज में कुछ ऐसे प्रकृति संरक्षक भी हैं, जिनकी बदौलत यह प्रकृति बची हुई है, और जो दूसरों को भी पर्यावरण का मतलब समझाकर उन्हें जागरूक करते रहे हैं। इन्हें ऐसे कोई विशेष दिन का इंतज़ार नहीं होता, जब पर्यावरण के लिए कुछ विशेष किया जाए। ऐसे पर्यावरण प्रेमी तो अपना समस्त जीवन ही समर्पित कर देते हैं। 

ऐसे ही दो हिमालय रक्षक है- सुंदरलाल बहुगुणा और आनंद धवाज़ नेगी। 

सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आन्दोलन के प्रणेता और पर्यावरण को वैश्विक पहचान दिलाने वाले युग पुरुष थे। जिन्होंने उस समय पर्यावरण के भविष्य में आने वाले संकट को सबके सामने रखा, जिस समय आम जनता के लिए यह कोई विशेष मुद्दा नहीं था, और योजनाकारों तक में इसे अवैज्ञानिक कहकर उनकी बातों को टाल दिया जाता था। किंतु इसके बावजूद भी बहुगुणा जी ने कभी कदम पीछे नहीं लिया। उन्होंने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे आम जनता को आने वाले इस संकट से आगाज़ करके ही रहेंगे। उनका घोषवाक्य था-“ क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार। वह लोगों को समझाते थे कि वृक्षों को काटने के स्थान पर अधिक से अधिक वृक्ष लगाना चाहिए, ताकि पर्यावरण को बिगड़ने से बचाया जा सके। इसके लिए उन्होंने कई पदयात्रा भी की और लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक भी किया। 


दूसरा नाम आनंद धवाज़ नेगी जी का है। जिनका जन्म सन्न 1947 में किन्नौर जिला के सुन्नम गाँव में हुआ था। इन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और विश्वास के बल पर वह कर दिखाया, जिसकी उम्मीद उस समय किसी ने नहीं की थी। थांगकर्मा प्रोजेक्ट पर करोड़ों रुपयों खर्च करने के बाद भी केंद्र सरकार उस जगह पर हरियाली फैलाने में असमर्थ रही। ऐसे में आनंद धवाज़ नेगी जी ने भुरूस्थल विकास विभाग से डिप्टी कंटोलर के पद से इस्तीफा देकर इस थांगकर्मा प्रोजेक्ट को पूरा करने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। 

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उस समय कई लोगों द्वारा उनके फैसले की अवेलहना गई कि वह लगी-लागी नौकरी छोड़कर उस काम के पीछे भाग रहे हैं, जिसको लेकर सफलता मिलने की गुंजाइश न के बराबर है। पर न तो उन्होंने लोगों के तानों की परवाह की और न ही उनके मन में कभी पीछे हटने का ख्याल आया। थांगकर्मा प्रोजेक्ट उनके गाँव से काफी दूर किन्नौर और स्पीती के बोर्डर पर स्थित है। उन्होंने इस जगह को ही अपना आवास बना लिया और यहीं पर रहते हुए अपने कार्य पर डटे रहे। कई वर्षों के कठिन मेहनत के बाद वे इस स्थान को सुंदरवन में बदलने में कामियाब हुए।


वर्तमान समय में इस जगह पर 65 हैक्टेयर भूमि पर लगभग 35 हजार अलग-अलग किस्म के पौधे उन्होंने यहाँ उगा दिया है, साथ ही मटर, बीन्स की खेती भी उन्होंने इस जगह पर की है। अपने इसी काम के करना वे डेजर्ट हीलर के नाम से विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अपने विश्ववास और कड़ी मेहनत से बंजर भूमि में से भी सोना उगा कर दिखा दिया। उनका उपवाक्य था-“मैं किसान का बेटा हूँ और पारम्परिक ज्ञान में ही विश्वास रखता हूँ।” 
भले ही वह आज हम सबके बीच नहीं हैं, पर वह लोगों को पर्यावरण का असली मतलब समझा गये। उनके इस काम से लोगों के मन में भी आशा की लौ जली है और उम्मीद है कि वे उनके इस काम को और आगे लेकर जायेंगे। हम सबको पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों को समझना होगा तभी पर्यावरण की जो समस्या अभी देश में बनी है, उससे बाहर निकला जा सकता है।

(लेखिका: सपना नेगी, किन्नौर, हिमाचल प्रदेश)



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