दाल, बाटी, चूरमा: 'स्वाद' का गौरवशाली इतिहास

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दाल, बाटी, चूरमा: 'स्वाद' का गौरवशाली इतिहास

  • युद्ध के समय हजारों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करना चुनौतीपूर्ण काम होता था
  • दाल, मुख्यतः पांच तरह की दाल चना, मूंग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनाई जाती थी 
Dal Bati Churma, History and Variety

लेखक / संकलनकर्ता: डॉ. विनोद बब्बर (Dr. Vinod Babbar) 
Published on 16 May 2021 (Last Update: 16 May 2021, 7:11 PM IST)

विभिन्न बोलियो भाषाओं, रहन सहन, प्राकृतिक परिस्थितियों और सबसे बढ़कर असंख्य लाजवाब स्वाद के लिए प्रसिद्ध भारत भूमि की बात ही निराली है। कहने को छप्पन भोग, लेकिन गिनने लगे तो एक छप्पन नहीं - सैंकड़ो छप्पन प्रकार की तो केवल मिठाइयां ही भारत में उपलब्ध हैं।

आज चर्चा करते हैं बाटी की। 

राजस्थान से बिहार और उत्तर प्रदेश तक बाटी के विभिन्न रूप स्वरूप हैं। लेकिन जब दाल बाटी का नाम आए, हमारा ध्यान वीरों की धरती राजस्थान की ओर जाता है। बाटी मूलत: राजस्थान का पारंपरिक व्यंजन है। इसका इतिहास करीब 1300 साल पुराना है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ राजवंश की शुरुआत की। बप्पा रावल को मेवाड़ राजवंश का संस्थापक भी कहा जाता है। इस समय राजपूत सरदार अपने राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिए युद्ध भी होते थे।

इस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई। दरअसल युद्ध के समय हजारों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करना चुनौतीपूर्ण काम होता था। कई बार सैनिक भूखे ही रह जाते थे। 

ऐसे ही एक बार एक सैनिक ने सुबह रोटी के लिए आटा गूंथा, लेकिन रोटी बनने से पहले युद्ध की घड़ी आ गई और सैनिक आटे की लोइयां रेगिस्तान की तपती रेत पर छोड़कर रणभूमि में चले गए। शाम को जब वे लौटे तो लोइयां गर्म रेत में दब चुकी थीं, जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूर्य और रेत की तपन से वे पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने इसे खाकर देखा तो यह बहुत स्वादिष्ट लगी। 

इसे पूरी सेना ने आपस में बांटकर खाया। बस यहीं इसका अविष्कार हुआ और नाम मिला बाटी। 

इसके बाद बाटी युद्ध के दौरान खाया जाने वाला पसंदीदा भोजन बन गया। अब रोज सुबह सैनिक आटे की गोलियां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार और रणभूमि में उपलब्ध ऊंटनी व बकरी के दूध से बने दही के साथ खाते। इस भोजन से उन्हें ऊर्जा भी मिलती और समय भी बचता। इसके बाद धीरे-धीरे यह पकवान पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया और यह कंडों पर बनने लगा।

अकबर के राजस्थान में आने की वजह से बाटी मुगल साम्राज्य तक भी पहुंच गई। मुगल खानसामे बाटी को बाफकर (उबालकर) बनाने लगे, इसे नाम दिया बाफला। इसके बाद यह पकवान देश भर में प्रसिद्ध हुआ, और आज भी है,  व कई तरीकों से बनाया जाता है। 

अब बात करते हैं दाल की। 

दक्षिण के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आए, तो उन्होंने बाटी को दाल के साथ चूरकर खाना शुरू किया। यह जायका प्रसिद्ध  हो गया, और आज भी दाल-बाटी का गठजोड़ बना हुआ है। उस दौरान पंचमेर दाल खाई जाती थी। यह पांच तरह की दाल चना, मूंग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनाई जाती थी। इसमें सरसों के तेल या घी में तेज मसालों का तड़का होता था। 

अब चूरमा की बारी आती है। 

यह मीठा पकवान अनजाने में ही बन गया। दरअसल एक बार मेवाड़ के गुहिलोत कबीले के रसोइये के हाथ से छूटकर बाटियां गन्ने के रस में गिर गई। इससे बाटी नरम हो गई और स्वादिष्ट भी। इसके बाद से इसे गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना लगा। मिश्री, इलायची और ढेर सारा घी भी इसमें डलने लगा। बाटी को चूरकर बनाने के कारण इसका नाम चूरमा पड़ा।


दाल बाटी जितना राजस्थान में पसंद किया जाता है, उतना ही उज्जैन-मालवा के इलाके में भी पसंद किया जाता है। मालवा के दाल-बाटी चूरमा लड्डू और हरी चटनी के साथ खाए जाते हैं। लड्डू और चूरमा अगर ना खाय तो साब यह भोजन पूरा नहीं होता। 

पूर्वांचल में बलिया, देवरिया, गोरखपुर, आज़मगढ़, जौनपुर, वाराणसी, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र से होते हुए बिहार तक दाल-बाटी और चोखा की परंपरा विद्यमान है। 

मालवा के दाल-बाटी और दाल-बाफले इतने प्रसिद्ध हैं कि इन्हें खाने के लिए लोग देश-विदेश से आते हैं। 


दाल-बाफले के खाने के बाद व्यक्ति आनन्दमयी हो जाता है और पानी पी पीकर नींद के आगोश में चला जाता है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में लिट्टी चोखा का प्रचलन है। लिट्टी बनाने की विधि भी लगभग बाटी जैसी ही है। लिट्टी में सत्तू भरकर उसे आग पर सेंका जाता है, तो उसे शुद्ध घी में डुबोकर, चोखा अर्थात बैंगन को भूनकर विशेष प्रकार से तैयार किये गये चटनी नुमा सब्जी से चटकारे लेकर खाया जाता है।

 महानगरों में तो केवल सत्तू की नहीं, बल्कि अनेक प्रकार के स्वाद वाली लिट्टी भी मिलती है ।

लॉकडाउन के इस दौर में आप अपनी रुचि के अनुसार दाल बाटी का आनंद लेना न भूलें ! 




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