शीश झुकाता हूँ, सरल हो जाता हूँ...

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शीश झुकाता हूँ, सरल हो जाता हूँ...

  • मस्तिष्क के लिए यह बहुत सरल खेल है, वह इसका परिपक्व खिलाड़ी है। वह हारना नही चाहता
  • मुझे अपने जानकार होने पर हँसी आती है, और अपने होने पर मुस्कुराहट

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लेखक: प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम" (Praful Singh Writer)
Published on 28 May 2021 (Update: 28 May 2021, 2:21 PM IST)

मस्तिष्क उठक-बैठक करता रहता है। करतब दिखाता रहता है। ज्ञानी होने का आकर्षण सबको बाँधता है। सबको खींचता है। यहाँ कोई भी इस व्यामोह से नहीं छूटना चाहता।

आश्चर्य यह कि उपयोगिता और प्रदर्शन के मध्य जो बहुत सूक्ष्म भेद है, उसे भी कोई स्वीकार नही करता। यहाँ हर बात की प्रति है। और यह इतनी गहरी व्याप्त है कि व्यक्ति को उसका भान तक नहीं। यह अस्तित्व अपनी उपस्थिति के उपवास में है। जब कोई तर्कणा उपस्थित होती है, तो उसके समानान्तर बड़ी सरलता से कुछ और रख दिया जाता है। मस्तिष्क के लिए यह बहुत सरल खेल है, वह इसका परिपक्व खिलाड़ी है। 

वह हारना नही चाहता!

तर्क में तो कदापि नहीं। जीत की यह एषणा उसे सरल नहीं होने देती। वह स्वयं से याचना करने लग जाता है। उसे भ्रम से भी कम ही लगाव है। वह विभ्रम के हाथ पकड़े घूमता है। यह मस्तिष्क इतना चतुर है कि व्यक्ति को छल लेता है, और उसे पता तक नहीं चलता। कई बार तो व्यक्ति को अल्प होने के अभिनय में उतार देता है, और वहाँ से उसे बड़ा करके दिखाने लगता है। जब कभी वह मुझमें ऐसे उठक-बैठक करता है, तब मैं उसे उसके ही कान पकड़ा देता हूँ। देखता हूँ कि मेरी सरलता, मेरा लोच, कहीं लुप्त न हो जाय। बहुत कठिन है यह स्वीकार पाना कि मैं सरल हूँ। मैं स्वयं को इसी सरलता को सौंप देता हूँ। यह मुझमें निर्वेश है।


राम व कृष्ण परमात्मा होकर भी कितने सरल हैं। इतने कि हर व्यक्ति उनसे स्वयं को सम्बद्ध कर सकता है। सत्य तो यह कि उनके समक्ष ज्ञानी होने की बात ही बचकानी है। उनके समक्ष होने के लिए किसी का ज्ञानी होना आवश्यक नहीं, क्योंकि इतना ज्ञानी कोई हो ही नहीं सकता कि इनके समक्ष भी हो सके। उन्हें तो भाता ही नहीं। उन्हें तो निर्मलता ही प्रिय है। निर्मलता ही सरलता है। यह स्वीकार कर लेना कि 'मैं सरल हूँ' अपने आप मे वैशिष्ट्य है। इसी से यहाँ हर कोई विशेष है।

शिव भूतपाल हैं। भूतभव हैं। हर हैं। सर्वहर! 
किन्तु यदि पार्वती से किये गये उनके असंख्य संवाद देखें, तो कहीं से प्रतीत नही होगा कि उनके भीतर कोई वैशिष्ट्य-भाव है। इसीलिए शिव असम्मोहित हैं। शिव स्थितप्रज्ञ हैं। वस्तुस्थिति को तद्रूप स्वीकार करने वाले सरलतम सर्वबोध हैं शिव। मैं शिव को अपने भीतर धुनता हूँ। राम से स्वयं को लीपता हूँ। कृष्ण को गुनगुनाता हूँ। मैं इसी सरलता और स्वीकार्यता में रच-बस जाना चाहता हूँ। और जब हृदय में राम हों, गोविन्द हों, तो सरलता ऐसी ही हो जाती है कि जो भी है, जैसे भी है, वह व्यक्त है। विशेष होने की चाह ही नहीं। ऐसे ही यदि कोई विशेषता बची है तो उसे 'हर' को देकर राम गोविन्द हुआ जाना चाहता हूँ।

देखता हूँ कि कोई गौरैया फुदकती हुई मेरी आँखों के ठीक ऊपर बैठ जाती है। उसके भीतर ध्वनि का वहीं विस्तार है जो अर्घेश्वर से फूटता है। वह ध्वनि मुझे फेरती है। अपनी उपस्थिति से वह मुझे नाप जाती है। मुझे अपने जानकार होने पर हँसी आती है, और अपने होने पर मुस्कुराहट। 


स्थिति चाहे जो भी हो किन्तु यह जीवन इतना तो कर ही जाता है कि हम जाते-जाते इसे स्वयं को सौंपना चाहते हैं। आदमी कल पे टालता है, और आज उसके अवचेतन में किसी सर्प की भाँति अपनी केंचुली उतार जाता है। वह पुनः कल के चक्कर काटता है। यह चक्कर उसे सरल नही होने देता। वह केंचुली उसे और-और जटिल करती जाती है। सहसा सुन्दर स्मृत हो आते हैं :- सुंदर जौ मन थिर रहै, तो मन ही अवधूत...,सरलता ही स्थिरता है। 

जटिलता व्यक्ति को भगाती रहती है। ऐसा ही कोई अवधूत होना है।

रामकृष्ण ने कहा था कि जीवन का विश्लेषण करना बन्द कर दो। यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को बस जीयो। उन्होंने एक बात और कहा था कि जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या नहीं, जिसे तुम्हें सुलझाना है। मैंने भी विश्लेषण बन्द कर दिया है। मैं बस जीता हूँ, अतएव सरल होता जाता हूँ। 

इस आकाश को पुकारता हूँ। यह पुकार उसका अनुपान है। यह अनुपल है। कोई सफेद धारी इस पार से उस पार को चीरती है। मैं चुपचाप अपनी महत्ता को उतारकर मौन हो जाता हूँ।




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