बिहार में चुनाव प्रचार जोरों पर है और चुनाव तिथि की घोषणा भी हो चुकी है. 28 अक्टूबर, 3 नवम्बर व 7 नवम्बर को तीन चरणों में यहाँ चुनाव होगा, तो 10 नवम्बर को रिजल्ट आएगा और बिहार अपनी लोकतान्त्रिक यात्रा पर आगे को बढ़ जायेगा.
इस बीच कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार एक बार फिर विनिंग कॉन्बिनेशन बनाने में सफल रहे हैं. चुनाव पूर्व कुछ सर्वे भी उनकी जीत सुनिश्चित बता रहे हैं, तो भाजपा के बड़े प्रदेश नेताओं से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बता चुके हैं. यहाँ तक कहा जा रहा है कि बेशक भाजपा अधिक सीटें ही क्यों ना जीत ले, किन्तु सीएम तो नीतीश ही बनेंगे.
जाहिर है नीतीश के एक बार पुनः मुख्यमंत्री बनने की प्रबल संभावनाएं हैं, अगर कुछ बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो...
पर राजनीति को और चुनावी समीकरणों को एक तरफ रख दें, तो नीतीश कुमार क्या वाकई 2020 में बिहार का नेतृत्व करने के लिए नैतिक योग्यता रखते हैं?
राजनीति में उन्होंने कई ऐसे प्रयोग किए हैं जिसकी वजह से बिहार की जितनी प्रगति होनी चाहिए थी, उससे यह राज्य सालों पीछे है.
अभी हाल ही में पॉपुलर वेब सीरीज मिर्जापुर टू रिलीज हुई है. उसमें एक जगह दिखलाया गया है कि उत्तर प्रदेश में क्राइम का ग्राफ काफी है, किंतु नेता जनता को यह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश क्राइम रेट में बिहार से बेहतर है!
अब इसी तर्ज पर देखें तो नीतीश कुमार का शासन काल निश्चित तौर पर बेहतर है!
अगर उनके शासनकाल की तुलना लालू प्रसाद यादव के शासनकाल से की जाए तो नीतीश तो फिर बिहारवासियों के लिए भगवान हैं, किंतु क्या यही एक मानक है जिस पर बिहार हर बार तोला जाता है और हर बार तोला जाता रहेगा?
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क्या बिहार की पहचान लालू यादव के जंगल राज से उठकर आगे नहीं बढ़ेगी और यह नीतीश कुमार की अपने आप में सबसे बड़ी असफलता है कि उनके 15 साल के शासन काल के बावजूद बिहार की तुलना, वह स्वयं लालू प्रसाद यादव के जंगल राज कर रहे हैं!
15 साल कोई कम समय नहीं होता है. इतने समय में एक नया नया पैदा हुआ शिशु जवानी की दहलीज पर कदम रख देता है. मात्र 3 साल बाद, एक 15 साल की लड़की अट्ठारह की होकर कानूनन शादी योग्य हो जाती है और तब यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब नीतीश कुमार लगातार सरकार में रहे हों!
उनकी सरकार के प्रति केंद्र का सहयोगात्मक रवैया भी रहा है. इसे डबल इंजन की सरकार वह हमेशा से कहते हैं, पर अपनी और अपने प्रशासन की तुलना लालू प्रसाद यादव के जंगलराज से कर रहे हैं, यह अपने आप पर विचित्र है.
नीतीश कुमार ने निश्चित रूप से कुछ अच्छे कार्य किए हैं. शराबबंदी जैसे कार्यों को लेकर उनकी मंशा भी उचित ही रही है, पर उसका क्रियान्वयन करने के प्रति वह कतई गंभीर नहीं दिखे हैं.
बिहार में आज भी अपराध बड़ी संख्या में होते हैं, तो पुलिस के साथ प्रशासन में इस कदर भ्रष्टाचार है कि नया नया बना पुल एक झटके में गिर जाए तो किसी को आश्चर्य तक नहीं हो रहा है. कई ऐसे गांव हैं, जहां आज भी बिजली नहीं पहुंची है, तो कई ऐसे गांवों में सड़क से ठीक ढंग से कनेक्टिविटी तक नहीं है. अब इसको लेकर नीतीश चाहे जो भी कहें, किंतु हकीकत में यह उनकी बड़ी असफलता है.
इसी प्रकार बिहार से बाहर रहने वाले प्रतिभाशाली लोगों को जोड़ने की उन्होंने कोई मुहिम नहीं चलाई. भारत के विकसित राज्यों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उसमें राज्य के प्रवासियों का काफी योगदान रहता है. चाहे गुजरात का उदाहरण ले लें, महाराष्ट्र का लें अथवा पंजाब का ले लें. इसके जो भी प्रवासी चाहे देश में कहीं और हैं, चाहे विदेश में जाएं, एक बड़ी मात्रा में धन अपने गृह राज्य भेजते हैं और इससे वह राज्य समृद्ध होता है. गुजरात तो नॉन रेजिडेंट गुजरातियों को जोड़ने के लिए बड़ी मुहिम चलाता रहा है और आज से नहीं बल्कि दशकों से!
किंतु नॉनरेजिडेंट बिहारियों को जोड़ने के लिए नीतीश कुमार की कोई छोटी मोटी पहल भी प्रभावी रूप से नहीं दिखी है. इस तरफ वस्तुतः उनका ध्यान ही नहीं गया और इसके पीछे कुछ और नहीं उनका अहंकार मात्र है.
आज नरेंद्र मोदी को वह जनसभाओं में श्रद्धेय मोदी जी कहते नहीं थक रहे हैं. पर उन्हीं नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार ने इस कदर नफरत किया था कि उनके साथ भोज तक में नहीं गए और जब प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के तौर पर भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी का नाम फाइनल हुआ, तो नीतीश कुमार ने बिहार की भलाई-बुराई एक तरफ रख कर भाजपा से नाता तोड़कर लालू यादव से जा मिले.
तब संभवतः वह यह भूल गए थे कि यह वही लालू यादव हैं, जिनके जंगलराज पर वह पहले भी वोट मांगते रहे हैं और भविष्य में भी उसी एजेंडे पर वोट मांगेंगे.
नीतीश कुमार बेशक अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने में एक हद तक सफल रहे हैं, किंतु उन्हें स्टेट्समैन के तौर पर शायद ही याद किया जाए. उन्हें क्रांतिकारी नेता भी नहीं माना जाएगा, क्योंकि नॉन रेजिडेंट बिहारियों को छोड़ भी दें तो बिहार में उद्योग धंधे लगाने को लेकर उन्होंने किसी प्रकार की कोई ठोस पहल नहीं की. बल्कि वह बहानेबाजी करते रहे कि बिहार समुद्र के किनारे नहीं है, इसलिए वहाँ उद्योग धंधे अधिक संख्या में नहीं लग सकते हैं. सच तो यह है कि अपने यहां उद्योग नियमों में किसी प्रकार का उन्होंने आवश्यक संशोधन बिल्कुल भी नहीं किया, उसके क्रियान्वयन की तो बात ही छोड़ दें.
यह उनकी अदूरदर्शिता दिखलाता है!
इससे इतर बात करें तो नीतीश कुमार की राजनैतिक शैली में उनका अहंकार बड़े पैमाने पर झलकता रहा है.
यूज एंड थ्रो कि उनकी पॉलिसी ने अंततः बिहार का ही नुकसान किया है.
इस बार वह अगर डर में नजर आ रहे हैं, तो इसके पीछे पर्याप्त कारण भी हैं.
वस्तुतः पहली बार नीतीश कुमार भाजपा की नाव पर सवार होकर अपने प्रत्याशियों की जीत की उम्मीद कर रहे हैं. एक तो जदयू के तमाम प्रत्याशियों के खिलाफ चिराग पासवान ने उम्मीदवार उतार रखा है, जिसमें भाजपा के कई बागी शामिल हैं. तमाम भाजपा के नेताओं की सफाई के बावजूद एक बड़ा मैसेज तो वोटर्स के बीच चला ही गया है कि चिराग पासवान के पीछे बीजेपी का हाथ है और चुनाव बाद अगर नीतीश के सीटों की संख्या बीजेपी की तुलना में कम हुई, तो इस बार नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बनना भी अधर में लटक सकता है. भाजपा अपने बड़े नेताओं के बोल की लाज रखते हुए अगर नीतीश को सीएम बना भी देती है, तो बहुत मुमकिन है कि यह 5 साल के लिए ना होकर कुछ महीनों के लिए ही हो!
आखिर बहाना बनाकर सरकार गिराना, राजनीतिक दलों के लिए कौन सा अचंभा रहा है?
मजबूरी देखिये कि हर बार मुखर रहने वाले नीतीश इस बार इन मामलों पर चुप्पी साधे हुए हैं. 15 साल लगातार सत्ता में रहकर अगर कोई मुख्यमंत्री अपना कॉन्फिडेंस इस स्तर तक खो दे, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस राज्य का कुछ और नहीं हो सकता.
हाल फिलहाल तो नीतीश कुमार गम में डूबे हुए होंगे और तमाम चुनावी सभाओं में उनके भाषणों में उनकी झुंझलाहट सामने भी आ रही है. भाजपा से कम सीटें आने पर मुख्यमंत्री बने रहने का नैतिक आधार वह किस प्रकार मजबूत करेंगे, यह देखने वाली बात होगी. बिहार की दुर्दशा में लालू यादव निश्चित तौर पर बड़े खलनायक रहे हैं, किन्तु नीतीश कुमार क्या वाकई बिहार का कायाकल्प करने के लिए याद किये जायेंगे, यह बड़ा सवाल है.
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- मिथिलेश कुमार सिंह
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Web Title: Premium Hindi Content on Nitish Kumar in Bihar Election 2020, Analytical Article on Nitish Politics and His Contribution
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