श्रावण उपाकर्म: इंद्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व, जिसमें हर गलती होती है माफ! Shravan Upakrama: Mythological Importance And Method

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श्रावण उपाकर्म: इंद्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व, जिसमें हर गलती होती है माफ! Shravan Upakrama: Mythological Importance And Method


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Published on 30 Jan 2023

श्रावण उपाकर्म: इंद्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व, जिसमें हर गलती होती है माफ!

श्रावण मास चल रहा है. पूरे देश के शिवालय 'बम बम भोले' से गूंज रहे हैं. कांवरिए पवित्र जल लेकर शिव के महाअभिषेक के लिए पहुंचने लगे हैं. देखा जाए तो इन दिनों भारत भक्तिमय नजर आ रहा है.
 
सावन से शुरू हुआ त्योहारों का यह मेला अब दीपावली तक यूं ही जारी रहने वाला है.

यूं तो बड़े-बड़े त्यौहारों के बारे में हर कोई जानता है और चाहे जैसे भी हो, उन्हें मनाने की कोशिश भी की जाती है, पर त्योहारों की इस रेलमपेल में एक बेहद खास पर्व दस्तक दे रहा है. 


इसकी चर्चा होना बेहद जरूरी है. इस पर्व को शास्त्रों में 'श्रावण उपाकर्म' का नाम दिया है.

हिंदूओं में खासतौर पर ब्राम्हणों के लिए यह पर्व कई मायनों में खास है. यह साल का एकमात्र दिन है, जो मानवशरीर की इंद्रियों को पवित्र करने, अपनी सभी गलतियों, पापों के लिए क्षमा मांगने का मौका देता है.
तो चलिए जानते हैं श्रावणी उपाकर्म के पौराणिक महत्व को!

गलतियों की माफी मांगने का दिन

श्रावण मास के श्रवण के चंद्रमा से मिलने की तिथि श्रावण पूर्णिमा को होती है. यह वह शुभ दिन होता है जब श्रावणी उपाकर्म मनाया जाता है. कुछ जगहों पर हस्त नक्षत्र में 'श्रावण पंचमी' को यह पर्व मनाते हैं.

श्रावण उपाकर्म को श्रावणी पर्व भी कह सकते हैं. जिसे ब्राम्हणों के जीवन का सबसे अहम हिस्सा बताया जाता है.
वैदिक काल से ही यह माना जाता है कि श्रावणी पर्व वह दिन है, जब ईश्वर हमें अपनी समस्त इंद्रियों को जागृत करने और पवित्र करने का मौका देते हैं. जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं, जब जाने-अनजाने हमसे कई गलतियां हो जाती हैं. कुछ पाप हो जाते हैं.
 
यह सब तब होता है, जब हम अपनी बाहृ और आंतरिक इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाते. शास्त्रों के अनुसार श्रावणी पर्व सबसे शुभ मुहूर्त होता है जब इंद्रियों को पवित्र किया सकता है. वेदों के अनुसार उपाकर्म का अर्थ है "प्रारंभ करना" और उपाकरण का अर्थ है "आरंभ करने के लिए निमंत्रण".

वैदिक काल में यह वह तिथि मानी जाती थी, जब शिष्य गुरू को अपना आराध्य, अपना माता-पिता और सखा मान कर खुद को उन्हें सौंप देते थे. यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास आने का सबसे उत्तम काल होता था.

धर्म ग्रंथों में लिखा गया है कि "जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी होती है तब श्रावण उपाकर्म की विधि सम्पन्न होती है.

इसी तिथी में शिष्यों का गुरूओं के पास आगमन होता है और इसी तिथी में  अध्ययन सत्र का समापन 'उत्सर्जन' या 'उत्सर्ग' भी होता है. यह सत्र माघ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चला करता था.

तीन चरणों में पूरा होता है उपाकर्म

जब हम श्रावण पूर्णिमा की बात कर रहे हैं तो यह दिन रक्षाबंधन के लिए भी जाना जाता है. दरअसल श्रावण पूर्णिमा में दो पर्वों की तिथि एक साथ होती है. रक्षाबंधन के बारे में हम आगे जानेगे. अभी जानते हैं श्रावण उपाकर्म के बारे में जिसकी विधी रक्षाबंधन के पहले पूरी की जाती है. 

शास्त्रों में लिखा है-

संप्राते श्रावणास्यान्त पौणिंमास्या दिनोदये। 
स्नानं कुवींत मतिमान् श्रुति स्मृति विधानतः॥

यानि बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि श्रावण की पूर्णिमा को प्रातः ही श्रुति-स्मृति विधानानुसार स्नानादि  करे. यह आत्मशोधन का पुण्य पर्व है. यह प्रायश्चित संकल्प है. श्रावण उपाकर्म के तीन पक्ष हैं. पहला पक्ष प्रायश्चित्त संकल्प, दूसरा संस्कार और तीसरा पक्ष  स्वाध्याय कहलाता है. उपाकर्म के पहले पक्ष में प्रायश्चित्त करने के लिए हेमाद्रि स्नान का संकल्प लिया जाता है.

जिसके अनुसार विधि सम्पन्न कराने के लिए गुरू का होना अनिवार्य है. उनकी आज्ञा लेकर दूध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र के साथ पवित्र कुशा हाथ में लेकर मंत्रोच्चार किया जाता है. इसके बाद पवित्र नदी के किनारे स्नान किया जाता है.

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।नर्मदे सिन्धु कावेरि जलऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।।

इस मंत्र के साथ स्नान विधि पूरी होती है. जब तक व्यक्ति स्नान करता है, तब तक गुरू प्रायश्चित्त संकल्प और मंत्र का उच्चारण करते रहते हैं. स्नान होने के बाद आता है उपाकर्म का दूसरा पक्ष यानि संस्कार.
संस्कार के तहत गुरू से आर्शीवाद लेकर हवन और यज्ञ किया जाता है. यह वह क्षण है जब मानव जीवन का प्रमुख संस्कार पूरा होता है. जिसे जनेउ संस्कार कहा जाता है.

यदि पहले से जनेउ धारण किया है, तो इस दिन पुराने जनेउ को नदी के प्रवाहित करके नए यज्ञोपवीत को धारण करते हैं.  इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है. यानि वह अपने मन की हर मलीनता, क्षल, पाप कर्म आदि को जनेउ के साथ प्रवाहित कर देता है और नए जनेउ के साथ आत्म संयम की शपथ लेता है.
 
उपाकर्म का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है स्वाध्याय. जिसकी शुरुआत में पवित्र यज्ञ अग्नि में सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि के नाम से घी की आहूति दी जाती है.
इसके बाद जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं.


सभी आहूतियां देने के बाद शुरू होता है वेद अध्ययन. यानि अगले पांच या साढ़े छह मास तक व्यक्ति रोजाना गुरू के पास आकर वेदों का अध्ययन करता है. यह वैदिक परंपरा है, जिसका निर्वाहर आज भी ब्राम्हणों द्वारा किया जा रहा है.
इसके साथ ही श्रावण उपाकर्म की विधी पूरी होती है.

सत्र पूरा होने पर गुरू को दक्षिणा दी जाती है. नियमानुसार दक्षिणा में पैसों और विलासिता की चीजें दान करने से ज्यादा महत्व इस बात का है कि गुरू के आगे उन चीजों का त्याग किया जाए जो आपको जीवन में कमजोर बनाती हैं.
कई लोग इस इन अपनी सबसे प्रिय वस्तु का त्याग करते हैं.  जैसे खाने या पहनने की या फिर दिनचर्या में बदलाव आदि.

विज्ञान भी मानता है उपाकर्म का महत्व

ऐसा नहीं है कि श्रावण उपाकर्म का महत्व वैदिक काल के साथ ही समाप्त हो गया हो. बल्कि आज का विज्ञान भी उपाकर्म के महत्व को मानता है. वैज्ञानिक भाषा में कहा जाए तो पवित्र मंत्रों के उच्चारण के दौरान सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है.

 
बारिश के बाद नदियों का पानी फिर से साफ हो जाता है. ऐसे में किसी नदी के घाट पर नहाने से चर्म रोग दूर होते हैं. यज्ञ—हवन आदि से मानसिक शांति मिलती है. 6 माह तक गुरू के सानिध्य में वेद पढने से न केवल ज्ञान का विस्तार होता है बल्कि जीवन में पॉजिटिवी भी आती है. जनेउ हमें हर रोज वह सारे नियम और वायदे याद दिलाता है जो हमनें अपने ईश्वर के आगे किए हैं.

इस लिहाज से विज्ञान श्रवण उपाकर्म को जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया मानता है. मृतिका, भस्म, गोमय, कुशा, दूर्वा आदि सभी स्वास्थ्यवर्द्धक एवं रोगनाशक होती हैं. हवन से निकला धुआं वातावरण में आॅक्सीजन के प्रतिशत को बढ़ाता है.

सनातन धर्म में दशहरा क्षत्रियों का प्रमुख पर्व है. दीपावली वेश्यों का प्रमुख त्यौहार माना जाता है. होली समाज के हर वर्ग का पर्व है, जब सभी उंच नीच का भेद भूलकर एक दूसरे को गले लगाते हैं और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाने वाला श्रावण उपाकर्म ब्राह्मणों का प्रमुख पर्व है. इसलिए हर ब्राम्हण अपने जीवन में कम से कम एक बार तो यह उपाकर्म जरूर करता है.

उपाकर्म की विधि पूरी होने के बाद रक्षा बंधन मनता है. जिसके बारे में कई पौराणिक कहानियां है. एक कथा के अनुसार इसी दिन इंद्र को देवासुर संग्राम के लिए विदा हुए थे और उनकी पत्नी शची ने उनकी भुजा पर रक्षा−सूत्र बाँधा था.

यही वह दिन है जब भगवान् वामन ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बाँधकर दक्षिणा प्राप्त की थी. इस साल यह शुभ मुहूर्त 26 अगस्त को है, तो यदि आप श्रावण उपाकर्म के महत्व को समझ चुके हैं तो इस बार इसका लाभ उठाने की कोशिश कीजिए!

Mythological Importance And Method of Shravan Upakrama

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