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1) बचपन में जब हम रेल की यात्रा करते थे तो माँ घर से खाना बनाकर साथ ले जाती थी, पर रेल में कुछ अमीर लोगों को जब खाना खरीद कर खाते हुए देखते, तब बड़ा मन करता था कि काश ! हम भी खरीद कर खा पाते.!
पिताजी ने समझाया, ये हमारे बस का नहीं.! ये तो बड़े व अमीर लोग हैं जो इस तरह पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं कर सकते.!
बड़े होकर देखा कि हम भी रेल का खाना खरीद सकते हैं। अब जब हम खाना खरीद कर खा रहे हैं, तो "स्वास्थ्य सचेतन के लिए," वो बड़े लोग घर का भोजन साथ लेकर जा रहे हैं.!
आखिर अंतर रह ही गया.! 😒 🤔
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2) हम अपने बचपन में जब सूती कपड़े पहनते थे, तब अमीर लोग टेरीलिन पहनते थे.! बड़ा मन करता था कि हम भी टेरीलिन के कपड़े पहनें, पर पिताजी कहते- हम इतना खर्च नहीं कर सकते.!
बड़े होकर जब हम टेरीलिन पहनने लगे, तब वो लोग सूती कपड़े पहनने लगे हैं.! अब सूती कपड़े महँगे हो गए ! हम अब उतना खर्च नहीं कर सकते.!
आखिर अंतर रह ही गया..!!! 😒 🤔
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3) बचपन में जब खेलते-खेलते हमारा पतलून घुटनों के पास से फट जाता तो बड़ी लज्जा का अनुभव होता था। माँ बड़ी कारीगरी से उसे रफू कर देती, और हम खुश हो जाते थे। बस उठते-बैठते अपने हाथों से घुटनों के पास का वो रफू वाला हिस्सा जरूर ढँक लेते थे !
बड़े होकर अपने पास कई पतलून हो गए और फटा पतलून पहनने की ज़रूरत नहीं रही। किंतु अब वे लोग घुटनों के पास फटे पतलून महँगे दामों में बड़े दुकानों से खरीद कर पहन रहे हैं.!
आखिर अंतर रह ही गया..!! 🤔 😒
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4) बचपन में हम साईकिल बड़ी मुश्किल से खरीद पाए, तब वे स्कूटर पर जाते थे ! जब हमने स्कूटर खरीदा तो वो कार की सवारी करने लगे और जब तक हम मारुति खरीद पाए, वो बड़ी वाली कार पर जाते दिखे.!
और हम जब रिटायरमेन्ट का पैसा लगाकर अंतर को मिटाने के लिए अच्छी कार खरीद लाए, तो वो साईकिलिंग करते नज़र आए, स्वास्थ्य के लिए।
आखिर अंतर फिर भी रह ही गया..!!! 🤔 😒
हर हाल में हर समय दो विभिन्न लोगों में "अंतर" रह ही जाता है।
"अंतर" सतत है, सनातन है, अतः सदा सर्वदा रहेगा।
कभी भी दो भिन्न व्यक्ति और दो विभिन्न परिस्थितियां एक जैसी नहीं होतीं।
कहीं ऐसा न हो कि, कल की सोचते-सोचते और तुलना करते-करते हम अपने आज को ही खो दें और फिर कल इसी आज को याद करें। इसलिए जिस हाल में हैं... जैसे हैं... प्रसन्न रहें।
😊😊 आप मुस्कुराइए, जिंदगी मुस्कुराएगी। हँसते रहिये 😊
- साभार (डॉ. विनोद बब्बर के व्हाट्सऐप संदेश से)
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