The Philosophy of Swami Vivekananda in Today's Context |
‘भारत देव भूमि है। अन्य देशों में देवता नही आते उनके दूत या पूत आते हैं। यहाँ भगवान स्वयं आते है, इसीलिये मेरा देश देवभूमि है।’ यह कथन है स्वामी विवेकानंद का जिसने भारतीय संस्कृति का डंका सारी दुनिया में बजाया। भारतीय जीवन दर्शन सत्य, सनातन, अनादि, अनन्त है। यह बात इस देश के ही नहीं, दुनिया भर के विद्वान, मनीषिं बार-बार दोहराते है। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब दुनिया के लोग भारत को सपेरों-गड़रियों का देश मानते थे। उस निराधार धारणा को बदलने का श्रेय महान तत्वदर्शी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद को है।
विवेकानंद केवल स्वामी नहीं, विश्व विजेता थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेधा से सारे विश्व को नतमस्तक करा दिया। ऐसा करना आसान न था लेकिन जिसके रोम- रोम में भारत बसता हो, जिसका चिंतन केवल और केवल अपनी मातृभूमि का पुनरुत्थान हो, जिसने भारत के जर्रे- जर्रें को निकट से देखा हो। जिसे स्वयं तीन समुद्रों के बीच स्थित शिलाखंड अपनी गोद में बैठाने के उत्सुक हो उस असाधारण व्यक्ति के लिए यह संभव ही नहीं सहज भी था।
भारत भ्रमण के दौरान स्वामी जी नेे अध्यात्म के उच्च शिखरों को देखा तो भूख, प्यास, निर्वस्त्र, घर विहीन बेबस लोगों को भी देखा। उस महा दरिद्रता ने उन्हें द्रवित कर दिया था। मन-बुद्धि में हलचल मच गई, ‘सारे विश्व को खिलाने वाला भारत आज दरिद्र, दयनीय क्यों?’ छुआछुत अश्पृश्यता ने उन्हें झकझोर दिया, ‘आत्मवत सर्व भूतेषु’ वाली धरा पर यह पापाचार क्यों?’ निरक्षरता, अश्पृश्यता, गरीबी, शोषण के देखे दृश्यों ने उन्हें रुदन करा दिया। नरेंद्र से सच्चिदानद, विविधसानंद बना यह युवा संन्यासी दुःखी तो अवश्य था लेकिन विचलित नहीं हुआ। उसने संकल्प लिया- भारत के पुनरुथान का। विश्व में भारत की छवि सुधारने का।
जो भी स्वामीजी के संपर्क में आया, उनका शिष्य बन। साधारण मनुष्य ही नहीं, राजा-महाराजा तक। खेतड़ी के महाराज ने अमरीका में होने वाले विश्व धर्म सम्मलेन में ज्ञान का प्रकाश कराने के लिए भेजने से पूर्व उन्हें नया नाम दिया- विवेकानंद। मुम्बई से जलमार्ग द्वारा पूर्णतः अपरिचित देश अमरीका पहुंचे इस संन्यासी ने क्या कुछ नही सहा। वहाँ जाकर मालूम हुआ कि सम्मलेन की तिथि दो महीने आगे बढ़ गई है। अनजान स्थान पर जहाँ भारत की तरह मांग कर भी नही खाया जा सकता था, कैसे वे रहे होंगे, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। कोई गाली देता तो कोई थूकता। निंदा करते इन लोगों के व्यवहार को विवेकी होने के कारण सहन करते रहे। इस अपरिचित देश को अपना बनाने आये थे, इसलिए कोई प्रतिरोध नहीं। प्रोफेसर राईट ने कृपापूर्वक सम्मलेन में भाग लेने की व्यवस्था की लेकिन सम्मलेन में दिये गये भाषण के पूर्व के संबोधन ने इतिहास रचा।
‘लेडीज एंड जेंटिलमेन’ वाले देश में ‘माई ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमरीका’ अनूठा और नया संबोधनथा जिसने पूरे सभागृह को दस मिनट तक तालियों से गूंजाये रखा। लोग उल्लास से झूम उठे। उस युवा संन्यासी के लिए भी यह नया अनुभव था।
उन्होने सभाध्यक्ष से कारण पूछा तो उन्हें बताया गया- लोग आनंद के कारण ऐसा कर रहे हैं। उस संबोधन के बाद तो श्रोताओं मंे उनके कपड़ों का चुम्बन लेने से अपना अतिथि बनाने की होड लग गई। अगले दिन समाचार पत्रों ने उन्हें विश्व विजेता भारतीय युवा संन्यासी घोषित कर अपमान से सम्मान तक की उस अनूठी यात्रा को साकार रूप प्रदान किया।
ढाई वर्ष भारत भ्रमण के बाद साढे चार वर्ष विश्व भ्रमण कर स्वामीजी 1897 में भारत लौटे तो रामेश्वरम समुद्र तट पर कालीन बिछाकर स्वागत करने की तैयारी थी लेकिन जहाज से उतरते ही अपनी मातृभूमि की माटी पर उन्होंने पाँव नहीं रखा, बल्कि माटी को ही सिर पर रखा। विवेकानद फिर से देश दर्शन पर निकले अलख जगाई, ‘मुझे मनुष्य चाहिए।’ उनका मनुष्य वह था जो भारत भक्ति करता हो। जिसमंे निरक्षर को सुशिक्षित बनाने का जनून हो, गरीबी को अपनी संपत्ति बांटने की इच्छा हो, भूखे को घर बुलाकर खाना खिलाने का भाव हो, ऐसा देशभक्त। स्वामी जी का विश्वास था- भारत का पुनरुत्थान प्रतिभाओं के विकास से ही संभव है। मनुष्य अर्थात् चरित्रवान बना प्रतिभा विकसित करने वाली शिक्षा चाहिए।
सेवा, समर्पण, त्याग भारत का जन्मजात आदर्श है लेकिन पश्चिम भोगवाद की चपेट में है। हमारे लिए शिक्षा का अर्थ मनुष्यता रहा है लेकिन पश्चिम में एजूकेटेड ब्लट (शिक्षित बर्बर) बन रहे हैं। आश्चर्य है कि हम पश्चिम को कोसते तो बहुत हैं लेकिन जाने-अजाने पश्चिम का अंध अनुसरण कर रहे है। शिक्षा समाधान देती है लेकिन आज शिक्षित युवा समस्या बन रहा है। आखिर वह कैसी शिक्षा है जो मनुष्य को राक्षस बनाती हो?
स्वामी विवेकानंद कहा करते थे- ‘देश और समाज की नींव मजबूत है। मुझे कोई आशंका नहीं है। भवन जर्जर हुआ है, जिसका नवनिर्माण करना है। यही नई पीढ़ी का दायित्व है। वे शिक्षित और संस्कारवान बने।’
आध्यात्म कोई धार्मिक रीति रिवाज नहीं वरन जीवन दृष्टि है। भारतीय दर्शन में युद्ध व सेवा दोनों में अध्यात्म है। लेकिन आज आध्यात्म व्यापार बन रहा है। तथाकथित संत खुद के लिए तो बड़े- बड़े आश्रम बना रहे है, कारों, विमानों में घुमते हैं लेकिन दरिद्र नारायण के लिए केवल उपदेश। जिस देश में सदियों से कहा गया ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ वहाँ आज के संत प्रतिनिधि की बजाय निधिपति बनकर मौज ले रहे है। ऐसे मंे विवेकानंद की प्रासंगिकता कहीं ज्यादा है जिन्होंने अपने गुरु के स्मारक के लिए एकत्र धन को अकाल पीड़ितों की सेवा में खर्च कर दिया। आज भी पूर्वोत्तर भारत में जहाँ ईसाई मिशनरी सक्रिय है वहाँ रामकृष्ण मिशन उनके समानान्तर सेवा कार्य कर रहा है। ‘केवल शब्दों में नहीं हमारे व्यवहार में भी हो आध्यात्म’ यह था विवेकानंद का दर्शन। पर आज हम कहाँ है?
The Philosophy of Swami Vivekananda in Today's Context (Pic: artclues.in) |
विवेकानंद ढोंगवाद का कठोरता से खंडन करते हुए कहते थे, ‘गरीब को संपन्न, मूर्ख को बुद्धिमान, चांडाल को अपने जैसा बनाना ही भगवान की पूजा है। इससे ही राष्ट्र निर्माण, भारत पुनरुत्थान होगा। आने बाले कुछ वर्षों तक सब देवी देवताओं को कोने में रखकर भारत माता की पूजा करना चाहिए। यदि भारत रहेगा, तो ही देवी देवता भी रहेंगे।’’
धार्मिक असहिष्णुता के दौर में उस एकात्म भाव की आवश्यकता है जो स्वामी जी ने दिया था जब एक प्रोफेसर ने उनसे पूछा, ‘एक तमिल और पंजाबी में क्या समानता? ना पहनावे में न खानपान में ना रीति रिवाजों में।’ स्वामी जी ने कहा था-‘भारत तो मानव संग्रहालय है। समानता क्या? पूरे भारत में पूछ लो एक ही जबाब आएगा- ईश्वर सर्वत्र, आत्मा अविनाशी, स्रष्टि अनादी अनंत। ये जोडने बाले तत्व समझना आवश्यक।’
लाहौर में स्वामीजी को सिक्ख, सनातनी, आर्यसमाजी सब अलग अलग बुलाना चाहते थे किन्तु उन्होंने कहा कि सब एक साथ आओ। और वह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा क्योंकि सब साथ-साथ आये। स्वामी जी से वहाँ कुछ सम्प्रदायों ने आपसी विवाद भी हल करवाये।
आज भी हमें स्वयं को हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख आदि से पहले भारतीय बनने की चुनौती है।
स्वामी विवेकानंद जी का आह्वान था, ‘गर्व से कहो- हम भारतीय है।!’ स्वामी विवेकानंद ने 1897 में कहा था, ‘आने वाले 50 वर्षों तक हमें केवल एक ही बात का ध्यान रखना चाहिए और वह है अपनी मातृभूमि। भारत माता ही एकमेव जागृत देव हैं।’
विवेकानंद जी अमेरीका की संपत्ति तथा भारत की गरीबी को करीब से देखा था। उनका चिंतन था- ‘भारत का आध्यात्मिक चिंतन और अमरीका की संपत्ति यदि एकरूप हो तो कितना अच्छा होगा। अमरीका का अर्थ और काम तथा भारत का धर्म और मोक्ष यदि मिल जाए तो इन दोनों देशों का ही नहीं, विश्व का कल्याण होगा।’ आश्चर्य है कि अमेरिका तो दूर हम भी स्वामी के उस महान दर्शन से विमुख हो रहे है। आज सारे विश्व को स्वामी विवेकानंद जी की जयंती के अवसर पर निर्णय करना है कि हमारे सामने दो 11 सितम्बर हैं लेकिन दोनों के संदेश बिल्कुल विपरीत हैं। एक 11 सितम्बर, 1893 शिकागों में स्वामीजी द्वारा दिखाया गया विश्व बंधुत्व का मार्ग तो दूसरा 11 सितम्बर 2001, न्यूयार्क अमेरिका के ट्विन टावर वाला। विनाश का वह दृश्य जिसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। हमें निर्णय करना है कि दुनिया को किस 11 सितम्बर को अपनाना है। निश्चित रूप में स्वामी विवेकानंद वाले 11 सितम्बर की ही आज आवश्यकता है। ‘जागो भारत, जानो भारत!’ स्वामीजी का यह संदेश आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक है।
स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी व्याख्यानों का हर शब्द ब्रह्मांड में गूँज रहा है। लेकिन उन शब्दों को आत्मसात करने की दिशा में न जाने हम कब आगे बढ़गें। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने कहा, ‘बीमारियाँ मुझे चालीस पार नहीं करने देंगी। इसलिए अब एक नहीं अनेक विवेकानंद चाहिए।’
(राष्ट्र किंकर पत्रिका के संस्थापक, संपादक)
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