विभीषण चरितं - Vibhishana of Lanka, Brother of Ravana Characteristics

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विभीषण चरितं - Vibhishana of Lanka, Brother of Ravana Characteristics


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Published on 28 Jan 2023

प्रकांड पंडित रावण का भाई और परम भक्त थे विभीषण! परन्तु बेहद धार्मिक व्यक्तित्व के स्वामी विभीषण को ‘घर का भेदी’ के रूप में पहचाना जाता है.

पर क्या वाकई ऐसा ही था?
राक्षस होते हुए भी था धार्मिक!

विभीषण का जन्म भी उसके बड़े भाईयों रावण और कुम्भकर्ण की तरह महर्षि विश्रवा एवं असुर कन्या कैकसी के द्वारा संभव हुआ था. तीनों के तीनों भाई परम तपस्वी थी और उन्होंने ब्रह्मदेव को प्रसन्न करके असाधारण वर प्राप्त कर लिए थे. 

रावण ने तीनों लोकों पर विजय पाने का आशीर्वाद तो कुम्भकर्ण द्वारा गलती से निंद्रासन मांग लिया गया. कुम्भकर्ण द्वारा निंद्रासन मांगने के एक अलग लम्बी कहानी है,लेकिन वह फिर कभी!

इन दोनों भाईयों से अलग हटकर विभीषण द्वारा भगवत भक्ति का वरदान मांगा गया.

इसके आगे की कथा कुछ यूं है कि बलवान रावण द्वारा अपने ही भाई कुबेर से लंका का राज्य छीन लिया गया, जबकि कुम्भकर्ण छः माह तक सोया रहा करता था, वहीं विभीषण भी था तो लंका में ही, किन्तु रावण के दरबार में उसे कोई महत्त्व का पद नहीं मिला था, बल्कि वह मात्र एक सलाहकार भर था. हालाँकि, उसकी सलाहें रावण को ठेस ही पहुंचाती थीं, क्योंकि वह धर्म सम्मत होती थीं, जबकि रावण अधर्म की राह पर अग्रसर हो चुका था.

रावण न केवल घमंडी था, वरन समस्त सृष्टि में वह और उसके अनुचर उत्पात मचाया करते थे. धरती के प्रत्येक कोने में ऋषियों पर अत्याचार, पर स्त्रियों से व्यभिचार उसका नित्य कर्म हो चला था. 

धीरे-धीरे रावण के पाप का घड़ा भरता जा रहा था, उधर विभीषण का कुछ वश नहीं चलता था, इसलिए वह प्रभु भक्ति की ओर खुद को झुकाता चला गया.

दूसरे मामलों में हालाँकि विभीषण रावण को धर्म सम्मत सलाह देता था, किन्तु दोनों भाईयों में असली तनाव हुआ सीता हरण प्रसंग से!

खासकर जब बजरंग बली सीता माता का पता लगाने लंका आये तो उन्होंने विभीषण से ही समस्त जानकारियाँ लीं और अशोक वाटिका में पहुंचे.

विभीषण ने रावण को यह सलाह भी दी कि अशोक वाटिका उजाड़ने और अक्षय कुमार सहित कई सैनिकों को मारने के बाद भी बजरंग बली की हत्या न की जाए, क्योंकि दूत को हानि पहुंचाना अधर्म है!

तत्पश्चात विभीषण की सलाह पर रावण ने बजरंगी की पूंछ में आग लगाने का हुक्म दिया व बजरंगी ने लंका जला डाली.

बड़ी बात यह थी कि इस लंका दहन के काण्ड में विभीषण का घर नहीं जला और इसे लेकर राज्यसभा में मेघनाद ने अपने चाचा विभीषण को खूब जलील किया.

उधर विभीषण भी समझ चुके थे कि जिस राम का दूत हनुमान इतना शक्तिशाली है, उनके हाथों रावण का अंत हो जायेगा, इसलिए उन्होंने फ्रंट फुट पर आकर रावण को समझाने की कोशिश की. 

फिर तो दशानन क्रोध में आकर विभीषण को न केवल राक्षस कुल का कलंक बताया, बल्कि भरी सभा में लात मारकर उनका अपमान भी किया और लंका छोड़कर जाने का हुक्म दे दिया.

काफी सोच विचार कर व अपमान से त्रस्त होकर विभीषण ने अपने चार परम मित्रों अनल, पनस, संपाति, एवं प्रमाति के साथ राम की शरण में आना उचित समझा.

हालांकि विभीषण को अपनी सेना में आया देखकर सुग्रीव उन्हें मारने दौड़े, क्योंकि उनके अनुसार हनुमान की पूँछ में आग विभीषण के कहने पर ही लगाई गयी थी. 

बहरहाल राजनीति व धर्म के ज्ञाता मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव को न केवल रोका, बल्कि विभीषण को उन्होंने शरणागति भी प्रदान की. 

यह देखकर विभीषण श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पित हो गए और आगे की कहानी यही है कि इस वजह से ही रावण का विनाश संभव हो सका.

राम की सेना में भी विभीषण को सलाहकार का पद दिया गया, किन्तु लंका की तरह यहाँ उन्हें उपेक्षा नहीं मिली, बल्कि पूर्ण स्नेह-सत्कार मिला और विभीषण ने श्रीराम को लंका का एक-एक महत्त्व का भेद बताया.

सागर पार करने की युक्ति, रावण के गुप्तचरों की पहचान, रावण और उसके सैनिकों की मायावी शक्ति की सटीक जानकारी, मेघनाद की शक्ति का रहस्य, लक्ष्मण के मूर्छित होने पर सुषेन वैद्य की जानकारी, यहाँ तक कि रावण की नाभि में अमृत होने तक की जानकारी विभीषण ने ही श्रीराम को दी. 

रावण वध के पश्चात् भगवान राम ने विभीषण को लंका का राजा बनाया और विभीषण ने भगवान राम को पुष्पक विमान पर बिठाकर अयोध्या तक छोड़ने आये.

प्रश्न उठता है कि क्या वाकई विभीषण कुल-कलंक ही थे?

अगर रावण ने उन्हें अपने राज्य से निष्काषित कर दिया था तो उनके पास और विकल्प थे भी क्या?
अगर उन्होंने धर्म का साथ दिया तो आज भी 'घर का भेदी' कहकर उन्हें क्यों अपमानित किया जाता है?

कहते हैं, आजीवन और जीवन के बाद भी इतिहास द्वारा अपमानित होने की जानकारी विभीषण को थी. 
रावण ने जब उन्हें राज्य से निष्काषित कर दिया था, तो अपने अगले कदम का परामर्श लेने वह अपनी माँ कैकसी के पास पहुंचे थे.

उनकी माता ने विभीषण से कहा कि वह निस्संकोच होकर राम की शरण में जाएँ, क्योंकि इसी में राज्य का कल्याण निहित हैं. रानी कैकसी को उनके पति और रावण - विभीषण के पिता महर्षि विश्रवा ने उन्हें अपने दिव्यज्ञान से यह बताया था. 

ऐसे में अपनी प्रजा का हित जानकर, जान बूझकर विभीषण ने 'कलंक' का स्वीकार किया था. 

हाँ! उन्होंने राम की शरण में जाने से पहले यह भलीभांति निश्चित कर लिया था कि इसमें उनका निहित स्वार्थ नहीं है, बल्कि इसमें राज्य का परमारथ है. वह यह भी जानते थे कि वह 'लोक द्वारा सदा ही निंदनीय' पात्र के रूप में याद किये जायेंगे, पर परमारथ के कारण उन्हें सब मंजूर था. 

धन्य है भारत और भारत की धरा, जहाँ न केवल यश के लिए, बल्कि लोगों की भलाई के लिए लोग अपयश का स्वीकार भी सहर्ष करते हैं. 

सिर्फ त्रेता युग के विभीषण ही क्यों, द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने भी तो तपस्विनी माता गांधारी के शाप को सहर्ष स्वीकार किया था, और अपने कुल का नाश देखने को विवश हुए!

पर इन सबके पीछे उनका अपना निजी स्वार्थ नहीं था, बल्कि इसके पीछे 'नर सेवा-नारायण सेवा' का भाव था, परमार्थ का भाव था. 

आप क्या सोचते हैं इस सन्दर्भ में, कमेन्ट-बॉक्स में अवश्य बताएं. 

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